क्यों है शिक्षा से हिंदी कोसों दूर
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दैनिक जीवन में भी हिंदी हमसे बहुत दूर होती जा रही है। मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि हमारे देश में बेरोजगारी का मुख्य कारण यही है। क्यूंकि व्यक्तिगत विकास के लिए जितनी जरूरी अंग्रेजी है उतनी ही देश के विकास के लिए हिंदी। हर जगह केवल अंग्रेजी को ही प्राथमिकता दी जाती है। व्यावसायिक शिक्षा का माध्यम मात्र अंग्रेजी भाषा रह गयी है। व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसे हिंदी में पढ़ाया जा रहा हो।
भारत के संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है। हिंदी भारत संघ की राजभाषा होने के साथ ग्यारह राज्यों और तीन संघ शासित क्षेत्रों की भी प्रमुख राजभाषा है। संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल अन्य इक्कीस भाषाओं के साथ हिंदी का एक विशेष स्थान है। हिंदी आम आदमी की भाषा के रूप में देश की एकता का सूत्र है और भारतीय विचार और संस्कृति का वाहक भी।
हिंदी हमारी मातृ भाषा है जिसको हम ममता के आँचल में सीखकर अपने दिल दिमाग में बसा लेते हैं, पर ये हमारा दुर्भाग्य है कि इन सबके बावजूद भी हिंदी शिक्षा जगत से कोसों दूर होती जा रही है। मातृभाषा से ही हम अपने देश से प्यार करना सीखते हैं। कुछ संस्कारों को सीखते हैं, पर इसके बावजूद भी लोगों को हिंदी बोलने, लिखने और कार्य करने में शर्म आती है। अंग्रेजी बोलना हर किसी के लिए गर्व की बात है और हिंदी शर्म की। यहाँ तक कि किसी भी विद्यालय में हिंदी बोलने में दंड का प्रावधान है और हिंदी को किसी विषय के रूप में पढ़ना अनिवार्य नहीं है। इसलिए बहुत से विद्यार्थी हिंदी पढ़ना, बोलना और लिखना तक नहीं जानते। हर कोई अंग्रेजी के पीछे भाग रहा है। हिंदी सिर्फ सरकारी स्कूलों तक ही सीमित रह गयी है कोई भी अपने बच्चों को हिंदी माध्यम में पढ़ाना नहीं चाहता। अंग्रेजी सीखने की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है। अंग्रेजी सीखने के लिए छोटे-छोटे शिक्षा केंद्रों में भी भीड़ नजर आती है। लाखों संस्थान देश में अंग्रेजी सिखा रहे हैं ।
अगर देखा जाए तो वर्तमान स्थिति इतनी भयानक नहीं है लेकिन भविष्य की कल्पना मात्रा से ही मन सिहर उठता है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि अंग्रेजी ही आम बोल-चाल की भाषा न बन जाए। हर किसी को ये लगता है कि बिना अंग्रेजी सीखे हुए उसका जीवन सार्थक नहीं है। ये डर हर किसी के मन में है कि अगर मुझे अच्छी अंग्रेजी नहीं आती है तो मैं कोई भी अच्छी पोस्ट पर नौकरी नहीं कर पाऊंगा या पाऊंगी। कुछ तो अंग्रेजी मन से सीखते हैं और जो नहीं सीख पाते वो डर से सीखते हैं या फिर ये भी कह सकते हैं कि उन्हें मजबूरीवश सीखना पड़ता है। न जाने क्यों हिंदी से हमने इतनी दूरी बना ली है कि अब हिंदी खुद ही हमारे पास आने से डरती है।
आज हम कहीं भी किसी नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तो हम अंग्रेजी को ही प्राथमिकता देते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हम साक्षात्कार के लिए जाते हैं और उस नौकरी को करने के लिए भले ही अंग्रेजी की ज़रूरत न हो पर फिर भी उस नौकरी को करने के लिए अंग्रेजी जानना जरूरी होता है। कहीं न कहीं हर किसी को यह भय है कि बिना अंग्रेजी सीखे मेरा किसी कंपनी में चयन होगा भी या नहीं और अगर हो भी जाता है तो जो मुझे मेहनताना मिलेगा वह अत्यधिक कम होगा।
दैनिक जीवन में भी हिंदी हमसे बहुत दूर होती जा रही है। मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि हमारे देश में बेरोजगारी का मुख्य कारण यही है। क्योंकि व्यक्तिगत विकास के लिए जितनी जरूरी अंग्रेजी है उतनी ही देश के विकास के लिए हिंदी। हर जगह केवल अंग्रेजी को ही प्राथमिकता दी जाती है। व्यावसायिक शिक्षा का माध्यम मात्र अंग्रेजी भाषा रह गयी है। व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसे हिंदी में पढ़ाया जा रहा हो।
आज हिंदी भाषा अपने ही घर में उपेक्षित जिंदगी जी रही है। अंग्रेजी बोलने वालों को बुद्धिमान समझा जाता है और हिंदी बोलने वालों को अनपढ़। सिर्फ हिंदी दिवस पर या किसी आयोजन पर लम्बे-लम्बे भाषण दिए जाते हैं। बस यहीं तक हिंदी सिमित रह गयी है। संवैधानिक रूप से हिंदी को प्रथम भाषा का दर्जा दिया गया है पर आज भी हिंदी भाषा दूसरे दर्जे पर ही है। अगर हमे हिंदी भाषा को बचाना है तो मेरा मानना है कि ऐसा माहौल बनायें कि हर कोई स्वयं हिंदी सीखने के लिए आगे आए और उसके लिए व्यावहारिक कारण हो न कि कोई भावनात्मक तर्क। हर व्यक्ति हिंदी सीखने में भी उतनी ही रूचि दिखाए जितनी कि अंग्रेजी सीखने में।
अगर ऐसा होता है तो शिक्षा जगत से हिंदी जितनी कोसों दूर हो रही है शायद थोड़ा बहुत करीब आ जाये और हमारी आत्मा यानि हिंदी भाषा जो मर चुकी है, उसमें जान आ जाए वह शायद पुनर्जीवित हो जाए।
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