नंबर के पीछे भागो कम ,कुशलता के लिए बढ़ाओ कदम
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नंबर के पीछे भागो कम,कुशलता के लिए बढ़ाओ कदम। इस मुहीम को साकार बनाने के लिए हमें पहले खुद में सुधार करना होगा, अभिभावक के तौर पर हमें अपनें बच्चो से “कितने नंबर मिले बेटा?” से पहले “ आज स्कूल में क्या सिखाया गया बेटा?” जैसे सवाल करने होंगे। बच्चो को शुरुआत में शिष्टाचार, उनकी रूचि, स्वयं से परिचय इन सब विषयों से अवगत कराना होगा। अगर नंबर ही सफलता की कुंजी होती तो शायद आज हमनें ओलिंपिक में एक भी पदक हासिल नहीं किया होता, क्रिकेट में हम वर्ड कप नहीं ला पाते ,ऑस्कर या अन्य राष्ट्रिय और अंतरर्राष्ट्रीय पुरस्कार हमारे देश के नाम नहीं होते।
इंसान फितरत से ही स्वार्थी होता है, वह जो चाहता है उसे जल्दी से जल्दी पा लेना चाहता है। लेकिन उसके लिए मेहनत नहीं करना चाहता। और इसी स्वार्थी स्वाभाव से आगे बढ़ रहा है विद्यार्थी जीवन, जिसे अभिभावक नंबर पाने की मशीन में बदलते जा रहें हैं। वर्तमान समय में नंबर का महत्व कुशलता से अधिक हो गया है। अच्छे नंबर पाने की चाह विद्यार्थी से ज्यादा उसके माँ-बाप और रिश्तेदारों की होती है। यहां तक कि नंबर के अनुसार भविष्य भी तय कर दिया जाता है। यदि किसी बच्चे का नंबर साइंस में ज्यादा आता है तो उसे, डॉक्टर या इंजीनियर बनने की सलाह दी जाती है। और अक्सर बच्चे अपनें पथ से भटककर असफलता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। उसका मुख्तयता कारण यह है कि, हो सकता है कुछ बच्चे साइंस में रूचि रखते हों लेकिन उनकी न्यूमेरिकल उतनी अच्छी न हो, उन्हें थ्योरी पसंद हो या वह उसे पसंद करते हों लेकिन करियर के रूप में नहीं चुनना चाहते हो। नंबर का लालच तो इतना बढ़ गया है कि, आज कल तो पैसा देकर नकल कराई जा रही है।
शिक्षा के क्षेत्र में काला बाजारी करने वाले शिक्षा माफिया इसको भी प्रतिस्पर्धा का सबसे बड़ा व्यवसाय मानते हैं। अभी कल की बात है जब राजस्थान में नीट का पेपर लीक करने वाले 8 लोगो को गिरफ्तार कर लिया गया, इससे साफ़ पता चलता है की नंबर की चाहत में पढाई न करनी पड़े और सफलता की सीढ़ी भी मिल जाए, ऐसा शॉर्टकट तरीका लोग आजमा रहे हैं। इसलिए भारत में उत्पादकता में भारी गिरावट नज़र आ रही है। सफलता, सीखने से मिलती है, उसे व्यवहार में लाने से मिलती है, रट्टा मारने से केवल नंबर मिलते हैं।
परीक्षा का मूल आधार था कि, उससे विधार्थियो के ज्ञान को भापा जा सके और उसी तरह वह शिक्षा सम्बन्धी खामियों को सुधारें। नंबर ज्ञान का पैमाना बन गया और जैसा कि इंसान की फितरत है उसे चीजे जल्दी और आसानी से चाहिए इसलिए वह ज्ञान पर कम और नंबर पर ज्यादा ध्यान देने लगा है। फलस्वरूप, आज इस नंबर-प्रतीस्पर्धा के चलते जाने-अनजाने में अभिभावक अपने बच्चो को नंबर पाने की मशीन बना रहे हैं। शर्मा जी का लड़का 98 प्रतिशत पाया लेकिन तू केवल 80 पाया ,हमनें कौन सी कमी रखी थी तेरे पढ़ाई में? अब सोचिये वर्मा जी के लड़के पर इस बात का क्या फर्क पड़ेगा? उसके दिमाग में अब यह बैठ जायेगा की नंबर महत्पूर्ण होते है, और उसे पाने के लिए मुझे अधिक मेहनत करनी होगी। फिर वह अगली परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए सीखनें से ज़्यादा रटने की कोशिश करेगा, क्योकि इंसान की फितरत है- कम समय में ज़्यादा की उम्मीद करना वो भी बिना किसी मेहनत के। शिक्षा माफिया नंबर प्रतिस्पर्धा के जरिये अपना धंधा चमका रहे हैं, हाल तो यह है कि विद्यार्थी को परीक्षा हाल में बैठना नहीं पड़ता, कोई और उसकी जगह पेपर देता है या तो, परीक्षा हाल के किसी कोने से मास्टर साहेब खुद इमला बोल कर नकल कराते है। उड़ाकादल से डर के कारण विद्यार्थी जल्दी-जल्दी नकल तो कर लेते हैं ,लेकिन उन्हें समझ कुछ नहीं आता कि वो लिख क्या रहे हैं। कहते हैं न, नकल के लिए भी अक्ल की जरुरत होती है। ऐसे विद्यार्थी आखिर क्या कर पाएंगे? हम उन्हें अपाहिज नहीं बना रहे तो ,क्या कर रहे हैं?
कुछ इसी तरह स्कूल में प्रैक्टिकल के नाम पर केवल फाइल्स भर-भर के लिखवाई जाती है, और बच्चे लिखते भी है, लेकिन प्रैक्टिकल अधिकतर स्कूलो में कराया ही नहीं जाता। बच्चे फाइल्स बनाते हैं, उसे सजाते है, चमकीले कलम से उसे आकर्षित बनाते हैं। लिखावट साफ़ सुथरी करने की कोशिश करते हैं। क्योकि दिखनें में जितनी सुंदर फाइल्स होंगी नंबर भी उतने ही ज़्यादा मिलेंगे, भले उसके बाद वह फाइल्स मैडम या सर के मेज़ पर पड़ी धूल खाती मिलेगी। उस प्रैक्टिकल फाइल में कुछ भी प्रैक्टिकल नहीं होता, बस नंबर पाने का एक तरीका होता है। रासायन विज्ञान की प्रैक्टिकल फाइल्स में बच्चो ने जब लिखा कि इस तत्व को दूसरे तत्व से मिलाने पर यह रंग बनेगा, लेकिन उसनें यह रटा था, उसे यह नहीं पता की आखिर वह बनता कैसे है। शिक्षा प्रणाली में कहीं तो कुछ खोट है, और हमनें आँख बंद कर उसे स्वीकार भी कर लिया। हम किताबों को पढ़ने से ज्यादा उसे रटने की आदत डाल रहे हैं। इसलिए जैसे-जैसे परीक्षा पास आती जाती है बच्चे दिन-रात किताबो से नजर नहीं हटाते और जैसे ही परीक्षा खत्म हो जाती है उनके दिमाग से रटी हुई सारी बातें दिमाग से निकल जाती है। और रह जाती है वो चीजें जो उसने केवल समझी थी।
आज के समय में हर दफ्तर में आपके मार्कशीट से ज्यादा आपके कुशलता के बारे में पूछा जाता है। आप यदि उस काम में माहिर नहीं है तो आपके उस रट्टे -मार नंबर से आपको नौकरी नहीं मिलने वाली। कुशलता का मतलब ही यही यह कि आप के पास कितनी जानकारी है जिसे आप प्रस्तुत कर सकते हैं। लेकिन हमनें जब शुरुआत की तो कुशलता पर कम ध्यान दिया नंबर को हद से ज्यादा महत्व दिया। यही कारण है कि आज भारत में इतनी बेरोजगारी है। हम इतने पढ़े -लिखे, महंगे स्कूलो में पढ़ने के बाद भी बेरोजगार क्यों हैं। बेरोजगारी होने का कारण बहुत से है, जिसमें नंबर की दौड़ भी शामिल है। स्नातक करने के बाद भी, यहाँ तक की परास्नातक करने के बाद भी कितने लोग बेरोजगारी के चलते उस काम को करने पर मजबूर हो जाते है जिसे वह बिना पढ़े-लिखे भी कर सकते थे, जैसे चौकीदारी करना, मजदूरी करना, ओला या उबर में काम करना या अन्य ऐसे काम।
रिपोर्ट कार्ड तो सही है ,लेकिन केवल इसी के भरोसे कहाँ तक और कब तक चल सकते हैं? बड़ी-बड़ी कंपनी आपके रिज्यूमे में केवल एक नज़र देखेगी उसके बाद आपको क्या आता है, किस क्षेत्र में आप माहिर है, क्या कंपनी जिस जॉब के लिए आपको नियुक्त करना चाहती है उसके आप काबिल हैं? यह पूछेगी, इसलिए हम नौकरी के लिए अग्रसर होते है, तो उससे पहले खुद को तैयार करते है, अपने आपको काबिल बनाते हैं। अब सोचिये अगर हम इस प्रक्रिया को स्कूल या स्नातक करते समय ही करते तो आज हमें इतनी मेहनत और खर्च करना ही नहीं पड़ता।
विद्यार्थियों को शुरू से भ्रमित किया जा रहा है, नौवी में अच्छे नंबर ले आओ, उसके बाद दसवीं में, फिर बारवीं उसके बाद जिंदगी बेहतर हो जाएगी। लेकिन क्या सब बेहतर होता है? फिर ग्रेजुएशन, उसे तो 80 प्रतिशत विद्यार्थी परीक्षा के एक दिन पहले पढ़ के पास करते हैं। अब सोचिये इतना बड़ा पाठ्यक्रम आप एक दिन में पढ़ के क्या ही लिख पाते होंगे और पेपर आता है की आपने आखिर समझा क्या, लेकिन विद्यार्थी लिखता कुछ और है। फिर भी उसे नंबर मिल जाते है और निरक्षण करने वाले दे देते हैं। क्योंकि यह बात तो हमारे भीतर बैठ ही चुकी है की ‘’नंबर इज इम्पोर्टेन्ट’’। ये तो वही बात हो गयी कि गुणवत्ता पर नहीं हम नंबर पर ध्यान दे रहे हैं।
कटु सत्य यह है की समाज में ,’’अच्छे नंबर आना जरुरी है’’, इस बात की दलील देने वाले भी बहुत है और तर्क देने वाले भी। हो सकता है उनका तर्क सही भी हो लेकिन नंबर किस तरह पाए जा रहे हैं, और यदि उसे इतनी महत्वता दी जा रही है तो, उसके मानदंड को भी मानक बनाना हमारी जिम्मेदारी है। शिक्षा माफिया जितना गलत है उससे दोगुना गलत वो अभिभावक है जो उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं। जिस तरह शराब का व्यापार करने से ज्यादा गलत उसके उपभोक्ता हैं। अब सोचिए हम दिखावा कर रहे है तो किससे? हम पढ़े-लिखे लोगो से सही तो वो अनपढ़ लोग है जो रट्टे मार कर पाने वाले नंबर पर खुद को ज्ञानी नहीं समझते है। खैर हम इस शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त, कुशलता को महत्व देकर कर सकते है, उसके लिए सरकार को ‘’नंबर के पीछे कम, कुशलता के पीछे बढ़ाओ कदम ‘’ जैसे जन-जन तक जागरूकता अभियान पहुंचाना चाहिए।
हम जो काम स्नातक और परास्नातक करने के बाद कंपनियों से रिजेक्ट होने के बाद खुद का व्यावहारिक विकास करते हैं, वही हमें शुरू से करना चाहिए। जो कि हो भी रहा है, लेकिन प्राइवेट स्कूल में, जिसमें केवल अमीर घर के बच्चे पढ़ सकते है। और ऐसे प्राइवेट स्कूल बच्चो को मूल चीजों को सीखानें के लिए महंगी फीस ले रहें, अब सोचिये मूल शिक्षा ग्रहण के लिए हम इतना खर्चा कर रहे हैं और वह भी अधूरी। जबकि सरकारी स्कूलों से पढ़े बच्चे नकल या रट्टे मार कर केवल शिक्षा की औपचारिकता को पूरा करतें हैं। हम सब को मिलकर इस शिक्षा प्रणाली के खोट को मिटाना है और भारत में बढ़ती बेरोज़गारी दर को कम कर उत्पादकता को बढ़ाना है।
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