शिक्षा की अलख जगाने वाली पद्मश्री तुलसी

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शिक्षा की अलख जगाने वाली पद्मश्री तुलसी
07 Jan 2022
8 min read

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66 साल की एक अनपढ़ महिला तुलसी मुंडा Tulsi munda गांव वालों के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है। इस अनपढ़ महिला तुलसी मुंडा Tulasi Munda का लोहा सरकार भी मानती है। 2011 में भारत सरकार ने तुलसी मुंडा Tulasi Munda को पद्मश्री Padma Shri से सम्मानित किया है। खदानों mines में काम करने वाले बच्चों और गांव वालों को उन्होंने नया जीवन दिया। अनपढ़ होकर भी गाँव के बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाने वाली यह महिला गाँव वालों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं है। तुलसी मुंडा के जीवन से हम ये बात सीख सकते हैं कि किताबी ज्ञान book knowledge आवश्यक है लेकिन उससे कई ज्यादा आवश्यक है practical knowledge व्यवहारिक ज्ञान। खुद अनपढ़ होकर उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में जो अलख जगाई है वो काबिले तारीफ है।

कहते हैं जीवन में पढ़ा लिखा इंसान होना अत्यंत आवश्यक है। तभी जाकर इंसान जीवन में कुछ कर सकता है अन्यथा उसका जीवन निरर्थक है लेकिन सोचिये अगर एक अनपढ़ इंसान भी कुछ ऐसा कारनामा कर जाये जो एक पढ़ा लिखा इंसान भी नहीं कर सकता है। शायद आप इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे लेकिन ये सच है और ये कारनामा किया है, उड़ीसा Odisha के छोटे से गाँव सेरेंदा Serenda की रहने वाली 66 साल की एक अनपढ़ महिला Tulsi munda तुलसी मुंडा ने। तुलसी मुंडा स्वयं अनपढ़ हैं पर उन्होंने सैकड़ों लोगों को पढ़ाकर एक नई कहानी लिखी है। जानते हैं कौन हैं तुलसी मुंडा और कैसे उन्होंने इस काम को अंजाम दिया। 

कौन हैं तुलसी मुंडा

तुलसी मुंडा Tulsi munda उड़ीसा Odisha के छोटे से गांव सेरेंदा Serenda की रहने वाली हैं। किताबी ज्ञान नहीं होने के बावजूद उन्होंने अपने व्यावहारिक ज्ञान से इतना बड़ा काम किया कि हर कोई उनका कायल हो गया। लोग उन्हें दीदी' Didi कहकर पुकारते हैं। उन्होंने स्वयं अनपढ़ होते हुए भी सैकड़ों लोगों को पढ़ाने का भार अपने कंधों पर उठाया। एक आर्थिक रूप से कमजोर, अशिक्षित महिला जिसका अपना गुजारा मजदूरी से मिल रहे पैसों पर ही होता था, उसके लिए अन्य लोगों को शिक्षित कर पाना आसान नहीं था। कहते हैं न कि अगर इंसान के अंदर कुछ करने का संकल्प Resolution हो तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं यहाँ तक कि वह आसमां की बुलंदियों को भी छू सकता है। उन्होंने सैकड़ों लोगों को पढ़ाने का भार अपने कंधों पर उठाया और लोगों को शिक्षित करने की मुहिम campaign to educate शुरू की। इस प्रकार समाज को शिक्षित Illiteracy in Society करना अपने जीवन का प्रथम लक्ष्य बना दिया।

गाँव वालों के लिए कैसे बनी मसीहा 

दरअसल उड़ीसा Odisha के सेरेंदा गांव Serenda Village के ज्यादातर बच्चे खदानों में काम किया करते थे। तब तुलसी भी खुद मजदूरी करके अपना गुजारा चलाती थी। 1963 में अचानक उनके जीवन ने नया मोड़ लिया। उन्होंने समाज society को शिक्षित educate करने की ठानी और यही उनके जीवन का लक्ष्य goal बन गया। 1963 में भूदान आंदोलन पदयात्रा Bhoodan Movement Padyatra के दौरान विनोबा भावे Vinoba Bhave उड़ीसा odisha गये। उसी दौरान तुलसी की मुलाकात विनोबा भावे से हुई। विनोवा भावे के विचारों से ही प्रभावित होकर उन्होंने उनके विचारों पर चलने की सोची। इसके बाद ही तुलसी मुंडा ने अपने गांव सेरेंदा में लोगों को शिक्षित करने का काम शुरू किया। तुलसी खुद पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन इस काम के लिए उन्होंने लोगों को तैयार किया। उन्होंने गांव वालों के साथ मिलकर खुद ही स्कूल school भी बनाया। बस फिर क्या था, उनकी मेहनत रंग लायी और तुलसी मुंडा गाँव वालों के लिए बन गयी मसीहा। उन्हें पद्म श्री से 2001 में भारत सरकार द्वारा सम्मानित किया गया था। इसके अलावा वर्ष 2011 में उड़ीसा सरकार द्वारा समाज कल्याण के क्षेत्र social welfare sector में विशिष्ट कार्य के कारण उन्हें 'उड़ीसा लिविंग लीजेंड अवार्ड' Orissa Living Legend Award दिया गया। 

मुश्किलों का सामना भी किया 

किसी भी काम को करने में मुश्किलें जरूर आती हैं। ऐसे ही तुलसी मुंडा Tulsi munda के साथ भी हुआ। अनपढ़ होकर गाँव के बच्चों को शिक्षित करना इतना आसान नहीं था। साथ ही वो आर्थिक रूप से भी कमजोर financially weak थी। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी गाँव वाले जो बच्चे थे वे सब खदानों mines में काम करने के लिए जाते थे। उनको पढ़ाई से कोई मतलब नहीं था। उनका रुख स्कूल की तरफ करना अत्यंत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था लेकिन तुलसी मुंडा ने अपनी कोशिशों efforts से नामुमकिन को मुमकिन में बदला। उन्होंने गांव वालों को बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार किया। अब सबसे बड़ी समस्या थी पैसा। इस समस्या को हल करने के लिए उन्होंने सब्ज़ियाँ आदि बेचनी शुरू की और धीरे-धीरे गांव वाले भी उनकी मदद करने लगे। सबसे पहले पेड़ के नीचे ही उन्होंने स्कूल का संचालन शुरू किया और धीरे-धीरे स्कूल बनाने की योजना बनायी। उन्होंने गाँव वालों के सहयोग से खुद पत्थर तराशकर स्कूल की नींव रखी। फिर इस स्कूल को ‘आदिवासी विकास समिति विद्यालय’ Tribal Development Committee School नाम दिया गया। अब यह स्कूल न केवल सेरेंदा गाँव बल्कि आसपास के कई अन्य गाँवो के लिए प्राथमिक शिक्षा का केंद्र primary education center बन गया है। उन्होंने सैकड़ों लोगों को पढ़ाकर एक नई परम्परा new tradition की शुरुआत की है।