भारत के महान वैज्ञानिकों का योगदान
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विज्ञान की दुनिया में जो निरंतर खोज, परिवर्तन, अविष्कार, विकास सब वैज्ञानिकों की मेहनत और समर्पण का नतीजा है। वैज्ञानिक खोजें कई बार न केवल हैरान करती हैं, बल्कि अपने अनूठे गुणों के कारण अक्सर रोमांच से भर देती हैं। आज विज्ञान हमारी जीवन शैली का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। हमारे देश में ऐसे महान वैज्ञानिक हुए हैं जैसे विक्रम साराभाई, चंद्रशेखर वेंकटरमन, विक्रम साराभाई आदि जिन्होंने विश्वपटल पर भारत के प्रति नजरिये को बदल दिया और देश में विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी। इन भारत के महान वैज्ञानिकों का योगदान Contribution Of Great Scientists Of Indian और कहानियां काफी प्रेरणादायक हैं। इनके योगदान और अविष्कारों को हम कभी भुला नहीं पायेंगे।
आज दुनिया विकास के जिस मुकाम पर पहुंची है वह विज्ञान और वैज्ञानिकों (scientist) के महान अविष्कारों inventions की ही देन है। आज भारत जिस तकनीकी विकास के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है, उसी तस्वीर को बदलने में भारतीय वैज्ञानिकों Indian scientist का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और विश्व में भी भारत ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान दिया है। चलिए जानते हैं ऐसे महान वैज्ञानिकों के बारे में जिन्होंने भारत का नक्शा ही बदल दिया।
भारत के महान वैज्ञानिकों का योगदान Contribution Of Great Scientists Of India
1. डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा Dr Homi Jehangir Bhabha
होमी जहांगीर भाभा भारत के महान परमाणु वैज्ञानिक great nuclear scientist of India थे। उन्हें भारत के परमाणु उर्जा कार्यक्रम का जनक father of atomic energy program कहा जाता है। उन्होंने देश के परमाणु कार्यक्रम के भावी स्वरूप की मजबूत नींव रखी जिसके चलते भारत आज विश्व के प्रमुख परमाणु संपन्न देशों की कतार में खड़ा है।
होमी जहांगीर भाभा का जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को मुंबई के एक पारसी परिवार में हुआ। उनके पिता जहांगीर भाभा एक जाने-माने वकील थे। होमी भाभा की प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के कैथेड्रल स्कूल से हुई। इसके बाद आगे की शिक्षा जॉन केनन स्कूल में हुई। भाभा शुरू से ही भौतिक विज्ञान और गणित में खास रुचि रखते थे।
12वीं की पढ़ाई एल्फिस्टन कॉलेज, मुबंई से करने के बाद उन्होंने रॉयल इस्टीट्यूट ऑफ साइंस से बीएससी की परीक्षा पास की। साल 1927 में होमी भाभा आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए और वहां उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। साल 1934 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय Cambridge University से उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की।
उन्होंने कॉस्केट थ्योरी ऑफ इलेक्ट्रान Cosette Theory of Electron का प्रतिपादन करने के साथ ही कॉस्मिक किरणों पर भी काम किया जो पृथ्वी की ओर आते हुए वायुमंडल में प्रवेश करती है।
उन्होंने ‘टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च’ (टीआइएफआर) और ‘भाभा एटॉमिक रिसर्च सेण्टर’ Bhabha Atomic Research Center की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न डॉक्टर भाभा को नोबेल पुरस्कार Nobel prize विजेता सर सीवी रमन भारत का लियोनार्दो द विंची बुलाते थे। भाभा न सिर्फ महान वैज्ञानिक थे बल्कि वह शास्त्रीय संगीत, नृत्य और चित्रकला में गहरी रूचि रखते थे और इन कलाओं के अच्छे जानकार भी थे।
डॉ होमी जहांगीर भाभा यानी परमाणु भौतिकी विज्ञान का ऐसा चमकता सितारा, जिसका नाम सुनते ही हर भारतवासी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। डॉ होमी जहांगीर भाभा ही वह शख्स थे, जिन्होंने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की कल्पना की, और भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त किया।
मुट्ठी भर वैज्ञानिकों की सहायता से परमाणु क्षेत्र में अनुसंधान का कार्य शुरू करने वाले डॉ भाभा ने समय से पहले ही परमाणु ऊर्जा की क्षमता और अलग-अलग क्षेत्रों में उसके उपयोग की संभावनाओं की परिकल्पना कर ली थी। तब नाभिकीय ऊर्जा से विद्युत उत्पादन की कल्पना को कोई भी मानने को तैयार नहीं था। यही वजह है कि उन्हें “भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का जनक” कहा जाता है।
भाभा ने जर्मनी में कॉस्मिक किरणों का अध्ययन किया और उन पर अनेक प्रयोग भी किए। वर्ष 1933 में डॉक्टरेट कि उपाधि मिलने से पहले भाभा ने अपना रिसर्च पेपर “द अब्जॉर्वेशन ऑफ कॉस्मिक रेडिएशन” "The Observation of Cosmic Radiation” शीर्षक से जमा किया।
इसमें उन्होंने कॉस्मिक किरणों की अवशोषक और इलेक्ट्रॉन उत्पन्न करने की क्षमताओं को प्रदर्शित किया। इस शोध पत्र के लिए उन्हें साल 1934 में ‘आइजैक न्यूटन स्टूडेंटशिप’ भी मिली।
कॉस्मिक किरणों पर उनकी खोज के चलते उन्हें विशेष ख्याति मिली, और उन्हें साल 1941 में रॉयल सोसाइटी का सदस्य चुन लिया गया। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए साल 1944 में मात्र 31 साल की उम्र में उन्हें प्रोफेसर बना दिया गया।
होमी जहांगीर भाभा ने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने का जो सपना देखा था, वह अपने विस्तृत स्वरूप में आगे बढ़ रहा है। आज भारत के पास रक्षा क्षेत्र में कई परमाणु मिसाइलें हैं, जिनमें अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलें शामिल हैं।
2. चंद्रशेखर वेंकटरमन Chandrasekhara Venkata Ramana
भारत में कई महान वैज्ञानिकों का जन्म हुआ है। जिसमें से आधुनिक भारत के महान वैज्ञानिकों में से एक वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकटरमन रह चुके हैं। चंद्रशेखर वेंकट रमन भारतीय भौतिक विज्ञानी, जिन्होंने भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार Nobel Prize जीतने वाले पहले भारतीय बनकर अपनी मातृभूमि को गौरवान्वित किया।
वर्ष 1954 में सी.वी रमन को भारत रत्न अवार्ड Bharat Ratna Award प्रदान किया गया था। वेंकटरमन ने प्रकाश पर गहन अध्ययन किया। वो इस रहस्य को उजागर करना चाहते थे कि पानी रंगहीन और तरल है परन्तु आंखों को नीला क्यों दिखाई देता है।
इस प्रकार प्रकाश के प्रकीर्णन पर प्रयोगों की एक श्रृंखला शुरू हुई जिसके परिणामस्वरूप अंततः रमन प्रभाव के रूप में जाना जाने लगा। रामन प्रभाव स्पेक्ट्रम पदार्थों को पहचानने और उनकी अन्तरंग परमाणु योजना का ज्ञान प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन के रूप में जाना गया। उनको 1957 में लेनिन शान्ति पुरस्कार प्रदान किया।
एक भारतीय भौतिक शास्त्री एवं प्रकाश के प्रकीर्णन पर उत्कृष्ट कार्य An Indian physicist and outstanding work on the scattering of light के लिए सीवी रमन को जाना जाता है। उनका पूरा नाम चंद्रशेखर वेंकटरमन रामनाथन अय्यर है। चंद्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवंबर 1888 को हुआ था। प्रकाश के प्रकरण पर उत्कृष्ट कार्य के लिए वर्ष 1930 में उन्हें भौतिकी का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार दिया गया।
उनका आविष्कार उनके ही नाम पर रामन प्रभाव के नाम से जाना जाता है। चंद्रशेखर वेंकटरमन या सर सीवी रमन एक ऐसे ही प्रख्यात भारतीय भौतिक-विज्ञानी थे, जिन्हें पूरी दुनिया भर में याद किया जाता है।
रमन प्रभाव का उपयोग आज भी विविध वैज्ञानिक क्षेत्रों में किया जा रहा है। ‘रमन प्रभाव’ की महत्वपूर्ण खोज के प्रति अपना सम्मांन जताने के लिए भारत वर्ष में 28 फरवरी का दिन राष्ट्रीय विज्ञान दिवस National Science Day के रूप में मनाया जाता है।
फोरेंसिक साइंस में तो रमन प्रभाव का खासा उपयोग हो रहा है और यह पता लगाना आसान हो गया है कि कौन-सी घटना कब और कैसे हुई थी। 1919 में उन्हें विज्ञान की खेती के लिए भारतीय संघ के मानद सचिव के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। इस पद पर सी वी रमन जी ने 1933 तक पदभार संभाला था। उनकी मृत्यु 1970 में हुई थी।
3. विक्रम साराभाई Vikram Sarabhai
डॉ. साराभाई को भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक Father of Indian Space Program माना जाता है। विक्रम साराभाई का जन्म 12 अगस्त 1919 को अहमदाबाद में हुआ था। उनके पिता कपड़ा व्यापारी थे। साराभाई की परवरिश में किसी तरह की कोई कमी नहीं हुई।
उनकी पढ़ाई परिवार के बनाए एक ऐसे स्कूल में हुई थी जिसने विज्ञान की ओर उनकी जिज्ञासा और जानकारी के लिए वर्कशॉप भी मौजूद थी। 18 साल की उम्र में वह रबींद्रनाथ टैगोर की सिफारिश पर कैंब्रिज पहुंचे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वह देश लौट आए।
उन्होंने भारत के अंतरिक्ष प्रोग्राम की नींव रखी। उन्होंने देश में 40 अंतरिक्ष शोधों से जुड़े संस्थानों को खोला। अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष भी थे।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन Indian Space Research Organization (ISRO) की स्थापना उनकी महान उपलब्धियों में एक थी। भारतीय परमाणु विज्ञान कार्यक्रम के जनक के रूप में व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त डॉ. होमी जहाँगीर भाभा ने भारत में प्रथम राकेट प्रमोचन केंद्र की स्थापना में डॉ.साराभाई का समर्थन किया।
उन्होंने आणविक ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स और अन्य अनेक क्षेत्रों में भी बराबर का योगदान दिया। डॉ. साराभाई विज्ञान की शिक्षा में अत्यधिक दिलचस्पी रखते थे और 1966 में सामुदायिक विज्ञान केंद्र की स्थापना अहमदाबाद में की। आज यह केंद्र विक्रम साराभाई सामुदायिक विज्ञान केंद्र कहलाता है।
भारत के आजाद होने के बाद उन्होंने 1947 में फिजिकल रिसर्च लैबरेटरी (पीआरएल) की स्थापना की। भारत में व्यावसायिक प्रबंधन शिक्षा की आवश्यकता को महसूस करते हुए साराभाई ने 1962 में अहमदाबाद में भारतीय प्रबंधन संस्थान की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वैज्ञानिक अनुसंधान में भागीदारी के बावजूद उन्होंने उद्योग, व्यवसाय और विकास के मुद्दों में रुचि ली।
विक्रम साराभाई भारतीय भौतिक विज्ञानी और उद्योगपति थे जिन्होंने अंतरिक्ष अनुसंधान शुरू किया और भारत में परमाणु ऊर्जा विकसित करने में मदद की। उनकी कोशिशों का ही नतीजा रहा कि हमारे देश के पास आज इसरो (ISRO) जैसी विश्व स्तरीय संस्था है।
भारत सरकार ने उन्हें 1966 में पद्मभूषण Padma Bhushan और 1972 में पद्मविभूषण Padma Vibhushan से नवाजा। विक्रम साराभाई ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेंजमेंट, अहमदाबाद, दर्पण एकेडमी ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डिजाइन समेत कई संस्थानों की नींव रखी।
4. डॉ जगदीश चंद्र बोस Dr. Jagdish Chandra Bose
जगदीश चंद्र बसु एक महान वैज्ञानिक थे। आधुनिक भारतीय विज्ञान Modern Indian Science में सबसे पहले वैज्ञानिक शोधकर्ता के रूप में जगदीश चंद्र बोस (Jagdish Chandra Bose) का नाम लिया जाता है। बचपन से ही बोस की प्रकृति के करीब रहने में बहुत दिलचस्पी थी।
इसी वजह से उनकी जीव विज्ञान में भी गहरी रुचि जागृत हुई। 11 साल की उम्र में वे कलकत्ता आ गए और सेंट जेवियर स्कूल में दाखिला लिया। फिर इसके बाद चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई के लिए वे लंदन चले गए है लेकिन स्वास्थ्य खराब होने की वजह वे डॉक्टर बनने का इरादा छोड़कर कैम्ब्रिज कॉलेज चले गए, जहां उन्होंने भौतिक शास्त्र का प्रमुख रूप से अध्ययन किया।
वह वैज्ञानिक जिसकी दोस्ती तरंगों से थी और जिसने पहली बार दुनिया को बताया कि पेड़-पौधों को भी अन्य सजीव प्राणियों की तरह दर्द होता है। जगदीश चंद्र बोस ने केस्कोग्राफ Crescograph नाम के एक यंत्र का आविष्कार किया। यह आस-पास की विभिन्न तरंगों को माप सकता था। बाद में उन्होंने प्रयोग के जरिए साबित किया था कि पेड़-पैधों में जीवन होता है।
इसे साबित करने का यह प्रयोग रॉयल सोसाइटी में हुआ और पूरी दुनिया में उनकी खोज को सराहा गया था। भारत के पहले आधुनिक वैज्ञानिक कहे जाने वाले जगदीश चंद्र बसु रेडियो और सूक्ष्म तरंगों पर अध्ययन करने वाले पहले भारतीय वैज्ञानिक थे। उन्हें भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान तथा पुरातत्व का गहन ज्ञान था।
उन्होंने वनस्पति विज्ञान में भी कई महत्वपूर्ण खोजें की। पूरी दुनिया में उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता Father of radio science कहा जाता है।
विभिन्न संचार माध्यमों, जैसे- रेडियो, टेलीविजन, रडार, सुदूर संवदेन यानी रिमोट सेंसिंग सहित माइक्रोवेव ओवन की कार्यप्रणाली में बसु का योगदान अहम है। वर्ष 1885 में बोस ने रेडियो तरंगों द्वारा बेतार संचार का प्रदर्शन किया था। उनका मानना था कि सजीव और निर्जीव या निष्क्रिय पदार्थों के रास्ते कहीं न कहीं आपस में मिलते जरूर हैं और इस मिलन मे विद्युत चुम्बकीय तरंगे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
बोस ने वेदांतों और उपनिषदों का वैज्ञानिक पक्ष रखा था जिससे गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद और सिस्टर निवेदिता Gurudev Rabindranath Tagore, Swami Vivekananda and Sister Nivedita जैसी हस्तियां प्रभावित थीं। उपनिषद आधारित विज्ञान पर उनकी चर्चित किताब ‘रिस्पॉन्सेस इन द लिविंग एंड नॉन लिविंग’ Responses in the living and non living का संपादन सिस्टर निवेदिता ने किया था।
बोस को बंगाली विज्ञान साहित्य का जनक भी कहा जाता है। 1917 में उन्हें नाइटहुड की उपाधि प्रदान की गई जिसके बाद बोस को सर जगदीश चंद्र बोस के नाम से जाना जाने लगा। 23 नवंबर 1937 को 78 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।
5. सुब्रमण्यम चंद्रशेखर Subrahmanyan Chandrasekhar
डॉ. चंद्रशेखर बचपन से ही प्रतिभावान थे। इनका सबसे ज्यादा मन आसमान में चमकते सितारों को देखने में लगता था, वे इसकी गुत्थियों को सुलझाना चाहते थे। सुब्रमण्यम चंद्रशेखर को खगोलशास्त्र (Astrophysicist) के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 1983 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
देखा जाये तो विज्ञान की परंपरा उनके परिवार में पहले से ही थी। उनके चाचा सी वी रमण को तो पूरा विश्व जानता है। मशहूर नोबेल पुरस्कार विजेता सीवी रमन के भतीजे एस चंद्रशेखर को दुनिया चंद्रा वेधशाला के लिए जानती है, जिनके नाम पर नासा ने अपने एक्स रे वेधशाला का नाम रखा है।
डॉ. चंद्रशेखर भी उन्हीं की राह पर चलते हुए अपनी खोज में लग गए। डॉ. सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर ने श्वेत बौने नाम के नक्षत्रों की खोज की। उनके द्वारा खोजे गए इस नक्षत्रों की सीमा को चंद्रशेखर सीमा कहा जाता है। इस भारतीय वैज्ञानिक की इस खोज ने दुनिया की उत्पत्ति के रहस्यों को सुलझाने में बहुत योगदान दिया।
वे महान भारतीय वैज्ञानिक सीवी रमन के भतीजे थे। उन्होंने खगोल भौतिक शास्त्र तथा सौरमंडल से संबंधित विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं।
18 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर का पहला शोध पत्र `इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स' में प्रकाशित हुआ। 24 वर्ष की अल्पायु में सन् 1934 में ही उन्होंने तारे के गिरने और लुप्त होने की अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा सुलझा ली थी। चंद्रशेखर 27 वर्ष की आयु से ही खगोल भौतिकीविद् के रूप में अच्छी धाक जम चुके थे।
उन्होंने भौतिकी, खगोलभौतिक, क्वांटमभौतिकी, सापेक्षता, रेडियोधर्मिता, ब्लैक होल आदि कई विषयों पर अपने शोधकार्य से संसार को कई नए आयामों से परिचित कराया था।
चंद्रशेखर अपने जीवन में भौतिकी की वहुत समस्याओं पर काम किया था और तारकीय संरचना, सफेद बौने, तारकीय गतिकी, स्टोचेस्टिक प्रक्रिया, रेडिएटिव ट्रांसफर ,हाइड्रोजन एनायन की क्वांटम भौतिकी, हाइड्रोजडान.हाइड्रोडायनामिक एंड हाइड्रोमैग्नेटिक स्टेबिलिटी , टर्ब्यूलेंस , इक्वीलिब्रियम ऑफ एलिप्सॉइड फिगर्स ऑफ इक्वीलिब्रियम जैसी अपने समकालीन अवधारणाओं पर काम किया था।
11 जनवरी 1935 को उन्होंने अपनी खोज रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के सामने पेश की। इसके बाद उस वक्त के महान खगोलशास्त्री और ऑक्सफोर्ड में उनके गुरु आर्थर एडिंगटन ने चंद्रशेखर को अपना रिसर्च पेपर सबके सामने रखने को प्रोत्साहित किया, लेकिन बाद में सर आर्थर एडिंगटन ने उनके इस शोध को प्रथम दृष्टि में स्वीकार नहीं किया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
वे पुन शोध में जुट गए। 1966 में जब साइंस ने कुछ और तरक्की कर ली, कंप्यूटर और गणना करने वाली दूसरी मशीन सामने आ गईं तब पता चला कि चंद्रशेखर की गणना बिल्कुल सही थी।
1972 में ब्लैक होल की खोज हुई। ब्लैक होल के खोज में चंद्रशेखर की थ्योरी बेहद काम आई। वर्ष 1983 में उनके सिद्धांत को मान्यता मिली। इस खोज के कारण भौतिकी के क्षेत्र में वर्ष 1983 का नोबेल पुरस्कार उन्हें तथा डॉ. विलियम फाऊलर को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। उनकी खोजों से न्यूट्रॉन तारे और ब्लैक होल के अस्तित्व की धारणा कायम हुई जिसे समकालीन खगोल विज्ञान की रीढ़ प्रस्थापना माना जाता है।
6. हरगोविंद खुराना Hargovind Khurana
विज्ञान की दुनिया में भारत का नाम रोशन करने वाले हैं डा. हरगोविंद खुराना। वह उन विज्ञानियों में शामिल हैं, जिन्होंने बायोटेक्नोलाजी की बुनियाद रखने में अहम भूमिका निभाई। भारतीय मूल के इस अमेरिकी नागरिक और वैज्ञानिक डॉ. हरगोबिंद खुराना को 1968 में चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया। डा. खुराना के शोध कार्य ने ही जीन इंजीनियरिंग यानी कि बायोटेक्नोलाजी की नींव रखी। डीएनए के रहस्यों को सामने लाने वाले डा. खुराना को कृत्रिम जीन के निर्माण का श्रेय भी जाता है।`
उन्होंने आनुवांशिक कोड (डीएनए) genetic code (DNA) की व्याख्या की और उसका अनुसंधान किया। खुराना ने मार्शल, निरेनबर्ग और रोबेर्ट होल्ले के साथ मिलकर चिकित्सा के क्षेत्र में काम किया। खुराना के इस अनुसंधान से चिकित्सा क्षेत्र को यह पता लगाने में मदद मिली कि कोशिका के आनुवंशिक कूट (कोड) को ले जाने वाले न्यूक्लिक अम्ल (एसिड) न्यूक्लिओटाइड्स कैसे कोशिका के प्रोटीन संश्लेषण (सिंथेसिस) को नियंत्रित करते हैं।
इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर राजर जे. एस. बियर की देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरेट की उपाधि हासिल की। इसके बाद उन्हें एक बार फिर वे ज्यूरिख (स्विट्जरलैंड) के फेडरल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी में प्रोफेसर वी. प्रेलाग के साथ शोध कार्यों में लग गए। वहां से वे वर्ष 1951 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय चले गए, जहां उन्होंने अलेक्जेंडर टाड के साथ न्यूक्लिक एसिड पर शोध करना शुरू कर दिया था।
वर्ष 1952 में खुराना ब्रिटिश कोलंबिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में कार्य करने के लिए कनाडा चले गए। इसके बाद 1960 में वे एंजाइम अनुसंधान के लिए विस्कांसिन यूनिवर्सिटी, अमेरिका चले गए और फिर वहीं बस गए। यहां उन्होंने जीन की डिकोडिंग और प्रोटीन संश्लेषण पर उल्लेखनीय कार्य किए।
डा. खुराना ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर डीएनए अणु की संरचना को स्पष्ट किया था और यह भी बताया था कि डीएनए प्रोटीन का संश्लेषण किस प्रकार करता है। उन्होंने पता लगाया कि डीएनए में मौजूद न्यूक्लियोटाइड्स की स्थिति से तय होता है कि कौन से अमिनो एसिड का निर्माण होगा।
ये अमिनो एसिड प्रोटीन बनाते हैं, जो कोशिकाओं की कार्यशैली से जुड़ी सूचनाओं को आगे ले जाने का कार्य करते हैं। इन अम्लों में ही आनुवंशिकता का मूल रहस्य छिपा हुआ है।
डा. खुराना ने विश्व के पहले कृत्रिम जीन का निर्माण किया। उनके योगदान ने जेनेटिक इंजीनियरिंग और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। खुराना के कार्य को आज भी आनुवंशिकी के क्षेत्र में अनुसंधान के आधार के रूप में देखा जाता है।
डा. खुराना को नोबेल पुरस्कार के अलावा भी बहुत से सम्मान मिले हैं, जिनमें मुख्य पुरस्कार हैं -डैनी हैनमेन अवार्ड, लासकर फेडरेशन पुरस्कार, लूसिया ग्रास हारविट्ज पुरस्कार Danny Hahnemann Award, Lasker Foundation Award, Lucia Gross Hurwitz Award आदि शामिल हैं।
भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें विश्व प्रसिद्ध संस्थान मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी में भी कार्य करने का अवसर मिला। उन्होंने अपने अनूठे शोध कार्यो से दुनिया में भारत का मान बढ़ाया।
हरगोविंद खुराना ने न्यूक्लिक एसिड में न्यूक्लियोटाइड का क्रम और जीन की खोज की थी जो कि मानवीय स्वास्थ्य के दृष्टिकोंण से बेहद महत्वपूर्ण खोज थी। इनकी खोजों ने चिकित्सा के क्षेत्र में बड़ा योगदान दिया।
उनकी खोजों और वैज्ञानिक क्षेत्र में योगदान के चलते उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा गया। हरगोविंद खुराना को भारत सरकार के द्वारा 'पद्मश्री' से नवाजा गया, बेसिक मेडिकल रिसर्च के लिए उन्हें एल्बर्ट लास्कर पुरस्कार मिला। उन्हें प्रतिष्ठित गैर्डनर फाउंडेशन इंटरनेशनल अवॉर्ड से भी नवाजा गया।
7. सत्येंद्र नाथ बोस Satyendra Nath Bose
इस महान भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस की महानता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भौतिक शास्त्र में बोसान और फर्मियान नाम के दो अणुओं two molecules named bosons and fermions में से बोसान सत्येन्द्र नाथ बोस के नाम पर ही है।
सत्येन्द्रनाथ बोस, भारतीय गणितज्ञ और भौतिक शास्त्री हैं। उन्होंने अपने समय के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन के साथ मिलकर बोस-आइंस्टीन स्टैटिस्टिक्स की खोज की।
सत्येन्द्रनाथ बोस का जन्म 1 जनवरी 1894 को कोलकाता में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा उनके घर के पास ही स्थित साधारण स्कूल में हुई थी। इसके बाद उन्हें न्यू इंडियन स्कूल और फिर हिंदू स्कूल में भरती कराया गया।
स्कूली शिक्षा पूरी करके सत्येन्द्रनाथ बोस ने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। उनकी प्रतिभा देखकर कहा जाता था कि वह एक दिन पियरे साइमन, लेप्लास और आगस्टीन लुई काउथी जैसे गणितज्ञ बनेंगे।
सत्येन्द्रनाथ बोस ने गणित में एम.एस.सी. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर सर आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें प्राध्यापक के पद पर नियुक्त कर दिया। उन दिनों भौतिक विज्ञान में नई-नई खोजें हो रही थीं। जर्मन भौतिकशास्त्री मैक्स प्लांक ने क्वांटम सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। उसका अर्थ यह था कि ऊर्जा को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटा जा सकता है।
जर्मनी में ही अल्बर्ट आइंस्टीन ने "सापेक्षता का सिद्धांत" प्रतिपादित किया था। सत्येन्द्रनाथ बोस इन सभी खोजों का अध्ययन कर रहे थे। बोस तथा आइंस्टीन ने मिलकर बोस-आइंस्टीन स्टैटिस्टिक्स की खोज की।
"प्लांक्स लॉ एण्ड लाइट क्वांटम" इसे भारत में किसी पत्रिका ने नहीं छापा तो सत्येन्द्रनाथ ने उसे सीधे आइंस्टीन को भेज दिया। उन्होंने इसका अनुवाद जर्मन में स्वयं किया और प्रकाशित करा दिया। इससे सत्येन्द्रनाथ को बहुत प्रसिद्धि मिली। उन्होंने यूरोप यात्रा के दौरान आइंस्टीन से मुलाकात भी की थी।
सन् 1926 में सत्येन्द्रनाथ बोस भारत लौटे और ढाका विश्वविद्यालय में काम किया। फिर शांतिनिकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय के कुलपति बने। अपने वैज्ञानिक योगदान के लिए वह सदा याद किए जाएँगे। उनके कार्यों की सराहना महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने की और उनके साथ मिलकर कई सिद्धांत प्रतिपादित किये।
सत्येन्द्र नाथ बोस एक उत्कृष्ट भारतीय भौतिक वैज्ञानिक थे। उनकी उपलब्धियों की बात करें तो उन्हें क्वांटम फिजिक्स में महत्वपूर्ण योगदान के लिए जाना जाता है। क्वांटम फिजिक्स में उनके अनुसन्धान ने “बोस-आइंस्टीन स्टेटिस्टिक्स” और “बोस-आइंस्टीन कंडनसेट’ सिद्धांत "Bose-Einstein Statistics" and "Bose-Einstein Condensate" Theory की आधारशिला रखी।
इस महान भारतीय वैज्ञानिक ने आधुनिक भौतिकी यानी क्वांटम भौतिकी को एक नई दिशा दी और उनके खोज पर आधारित नयी खोज करने वाले कई वैज्ञानिकों को आगे जाकर नोबेल पुरस्कार मिला।
8. जयंत विष्णुदनार्लीकर Jayant Vishnudnarlikar
जयंत विष्णु नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को कोल्हापुर में विष्णु वासुदेव नार्लीकर और सुमति नार्लीकर के घर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता विष्णु वासुदेव नारलीकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गणित विभाग के अध्यक्ष थे, इसलिए उनकी शिक्षा-दीक्षा भी वहीं से हुई।
उन्होंने 1957 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से साइंस ग्रेजुएट की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने इंग्लैंड में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के फिट्ज़विलियम हाउस में अपनी पढ़ाई शुरू की। यहां उन्होंने 1959 में गणित में बीए किया और सीनियर रैंगलर बने। उन्होंने अपनी PHd 1963 में फ्रेड हॉयल के मार्गदर्शन में पूरी की। बाद में खगोल-भौतिकी में उनकी रूचि बढ़ी और उन्होंने उसमें प्रवीणता हासिल की।
जयंत नार्लीकर को विज्ञान के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्हें 1962 में 'स्मिथ पुरस्कार', 1967 में 'एडम्स पुरस्कार' प्राप्त हुए। वे 1963 से 1972 तक किंग्स कॉलेज के फेलो रहे और 1966 से 1972 तक इंस्टीट्यूट ऑफ थिओरेटिकल एस्ट्रोनामी के संस्थापक सदस्य के रूप में जुड़ रहे।
उन्हें कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले, उनमें से उल्लेखनीय 2004 में पद्म विभूषण और 1965 में पद्म भूषण हैं। उन्हें 2010 में महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार मिला। उन्हें भटनागर पुरस्कार, एमपी बिड़ला पुरस्कार और फ्रेंच एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के प्रिक्स जूल्स जानसेन भी मिले हैं। 1996 में यूनेस्को ने उन्हें कलिंग पुरस्कार से सम्मानित किया है।
जयंत विष्णु नार्लीकर एक भारतीय खगोल भौतिक विज्ञानी यानी स्पेस फिजिसिस्ट हैं। नार्लीकर ब्रह्मांड विज्ञान (cosmology) में अपने काम के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत विष्णु नार्लीकर भौतिकी के वैज्ञानिक हैं।
उन्होंने ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बिग बैंग की थ्योरी के अलावा नये सिद्धांत स्थायी अवस्था के सिद्धान्त (Steady State Theory) पर भी काम किया है। उन्होंने इस सिद्धान्त के जनक फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर काम किया और हॉयल-नार्लीकर सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। कई पुरस्कारों से सम्मानित नार्लीकर ने विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए विज्ञान साहित्यड में भी अपना अमूल्य योगदान दिया।
उन्होंने सर फ्रेड हॉयल के साथ कंफर्मल ग्रैविटी थ्योरी विकसित की, जिसे हॉयल-नार्लीकर थ्योरी के रूप में जाना जाता है। विज्ञान प्रसार द्वारा प्रकाशति उनके सद्य प्रकाशित संग्रह 'कृष्ण विवर और अन्य विज्ञान कथाएं' में उनकी 14 विज्ञान कथाओं को संग्रहीत किया गया है, जिसमें उनकी चर्चित कहानियां कृष्ण विवर, नौलखा हार और धूमकेतु भी शामिल हैं।
इनके अतिरिक्त संग्रह में शामिल विज्ञान कथाएं हैं- अंतिम विकल्प, दाईं सूंड के गणेशजी, टाइमस मशीन का करिश्मा, पुत्रवती भव, अहंकार, वायरस, ताराश्म, ट्राय का घोड़ा, छिपा हुआ तारा, विस्फोट एवं यक्षों की देन।
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