चुप-चाप रहना कितना आसान है कितना कठिन ये तो आप पर निर्भर करता है। प्रकृति का चुपचाप होना आग है मनुष्य का चुपचाप होना अलग। इसी ख़ामोशी और शून्यता में कितने प्रश्न उठते हैं। इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए पढ़े ये कविता आपको एक अलग ही सफर पेले जाने का प्रयास करेगी।
चुपचाप है
हवाओं का वेग
न कहीं शोर है
न कोई आवाज़
इतना सन्नाटा
इतनी ख़ामोशी
इतना बासीपन
किसलिए
आख़िर किसलिए
ये गूँगी आवाज़ें
क्या बोलती हैं
कौन पता करें
उनका गहराया दर्द
उनकी गुमशुदगी
उनका असली नाम
उनकी असली पहचान
क्यों है इतना उदासीपन
किसलिए
आखिर किसलिए
ये हिज्र
ये खालीपन
क्यों है ये जीवन
क्यों है ये वेसीला मन
कौन जाने
कैसे कटे
ये उदास रातें
ये बेहोशी भरे दिन
ये बेहिसाब वक़्त
और उलझी ज़िन्दगी
क्यों किसलिए
आख़िर किसलिए
अपनेपन से
कहीं दूर बैठकर
अपनी ही तलाश
कितना अजीब है
कितना बेहिसाब है
कितना कोफ़्त से भरा है
ज़हन में क्या कुछ धरा है
कौन संभाले बोझ
क्यों किसलिए
आखिर किसलिए
कुछ भी नहीं बचता
सब चुक जाता है
आदमी,
आदमी की दौलत
आदमी का तन
कुम्भलाया ह्रदय
ह्रदय में हज़ार स्मृतियाँ
स्मृतियों से बेहिस्र टपकता
अनायास वक़्त
वक़्त में लिपटी हुई
आदमी की लाश
कौन उठाये
और क्यों
किसलिए
आखिर किसलिए
नहीं ये ठीक नहीं
इतना विचारशील होना
अपने आप ही
अपने को खोना
और फिर खो जाने पर
हासिल क्या
फिर खोज किसकी
फिर रहा क्या
जिस्म
आत्मा
जब दोनों ही अनजान है
अपने आप से
तो कहाँ खोजें
दोनों को
न घर मे कुछ मिलता है
न बाहर कुछ मिलता है
ख़ुदके भीतर जो झाँको
तो मिलता है सब खाली
तो क्या खोजें
ईश्वर?
क्या वो है
गर है तो खोज कैसी
और क्यों
किसलिए
आखिर किसलिए
आखिर किसलिए।