आज जब महिलाओं के स्थान और उनके हिस्से की बराबरी को लेकर इतनी सारी बातें की जाती है तो मुझे लगता है कि एक महिला का स्थान बराबरी का कभी बराबरी का था ही नहीं बल्कि महिलाओं का स्थान तो इस समानता पाने की जद्दोजहद से कहीं ऊपर है। यह तो फिर भी वर्ष 2022 है आप वर्ष 1800, 1900, या उससे भी पहले की बात सोचिये जब समानता या महिला के अधिकारों के विषय में सोचना भी बड़ी बात थी। ऐसे समय में भी कुछ ऐसी अड़भू व साहसी महिलाएँ थी जिन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति व दूरदृष्टि के कारण भारत में ही नहीं, विश्व में भी अपनी पहचान बनायी। यहाँ इन्हे अद्भुत व साहसी कहना अतिआवश्यक इसलिए है क्यूंकि इन्होंने अपने-अपने समय की सोच की
आज जब महिलाओं के स्थान और उनके हिस्से की बराबरी को लेकर इतनी सारी बातें की जाती है तो मुझे लगता है कि एक महिला का स्थान बराबरी का कभी बराबरी का था ही नहीं बल्कि महिलाओं का स्थान तो इस समानता पाने की जद्दोजहद से कहीं ऊपर है। यह तो फिर भी वर्ष 2022 है । वर्ष 1800 , 1900, या उससे भी पहले की बात सोचिये जब समानता या महिला के अधिकारों के विषय में सोचना भी बड़ी बात थी। ऐसे समय में भी कुछ ऐसी अदभुद व साहसी महिलाएँ थी जिन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति व दूरदृष्टि के कारण भारत में ही नहीं, विश्व में भी अपनी पहचान बनायी। यहाँ इन्हे अद्भुत व साहसी कहना अतिआवश्यक इसलिए है क्योंकि इन्होंने अपने-अपने समय की सोच की जंजीरों से ही लड़ाई नहीं की बल्कि खुद भी अपने अंदर कितने बड़े अंतर्द्वद्व conflict से गुजरी होंगी, सोचकर देखिये।
आइए आज ऐसी ही कुछ महिलाओं को स्मरण करें-
1.आनंदीबाई जोशी-
डिग्री हासिल करना अपने-आप में एक मिसाल है। पर यहाँ हम वर्ष 1885-1887 के बीच की बात कर रहे हैं जहाँ एक महिला के लिए समाज के कुछ नियम कानून बने हुए थे और उसे वैसे ही जीना पड़ता था। इनका विवाह नौ वर्ष की अल्पायु में उनसे करीब 20 साल बड़े गोपालराव से हो गया था फिर 14 साल की उम्र में वे माँ बनीं और उनकी एकमात्र संतान की मृत्यु 10 दिनों में ही गई तो उन्हें बहुत बड़ा आघात लगा। यह हादसा उनके लिए बहुत बड़ी घट बनी। अपनी संतान को खो देने के बाद उन्होंने यह प्रण किया कि वह एक दिन डॉक्टर बनेंगी और ऐसी असमय मौत को रोकने का प्रयास करेंगी। उनके पति गोपालराव ने भी उनको भरपूर सहयोग दिया और उनकी हौसला अफजाई की।
जब उन्होंने यह निर्णय लिया था, उनकी समाज में काफी आलोचना हुई थी कि एक विवाहित हिंदू स्त्री विदेश (पेनिसिल्वेनिया) जाकर डॉक्टरी की पढ़ाई करे। लेकिन आनंदीबाई एक दृढ़निश्चयी महिला थीं और उन्होंने आलोचनाओं की तनिक भी परवाह नहीं की। यही वजह है कि उन्हें पहली भारतीय महिला डॉक्टर होने का गौरव प्राप्त हुआ। हालाँकि उनका वहाँ जाकर कुछ स्वास्थ्य बिगड़ने लगा डिग्री पूरी करने के बाद जब आनंदीबाई भारत वापस लौटीं तोपूरी तरह से स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण बाईस वर्ष की अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गई। यह सच है कि आनंदीबाई ने जिस उद्देश्य से डॉक्टरी की डिग्री ली थी, उसमें वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाईंं, परन्तु उन्होंने समाज में वह स्थान प्राप्त किया, जो आज भी एक मिसाल है। दूरदर्शन, एक भारतीय सार्वजनिक सेवा प्रसारक ने उनके जीवन पर आधारित "आनंदी गोपाल" नाम की एक हिंदी श्रृंखला प्रसारित की, जिसका निर्देशन कमलाकर सारंग ने किया था। श्रीकृष्ण जनार्दन जोशी ने अपने मराठी उपन्यास आनंदी गोपाल में उनके जीवन का एक काल्पनिक लेख लिखा है, जिसे राम जी जोगलेकर ने इसी नाम के एक नाटक में रूपांतरित किया था
2. भारत की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले-
सवित्रीबाई फुले ने नया सिर्फ अपने पति ज्योतिबा फुले के दृष्टिकोण को समझ बल्कि समय, समय और नया जाने कितनी बाधाओं को पार करके भारत की पहली महिला शिक्षिका बनीं । आप सोचकर देखिये यह उस समय की बात है जब महिला शिक्षिका का अस्तित्व ही नहीं था, हर कोई ज्योतिबा फुले के हिस्से के प्रयत्नों को जानता है पर पत्नी यानी सावित्रीबाई फुले की हिस्से के संघर्षों के विषय में सोचकर देखिये। एक तो अल्पायु में विवाह, ऊपर से पति की ऐसी दूदरिष्टि की सोच जो उस समय के समाज और सोच से परे थी । हर अच्छे काम की शुरुआत घर से करनी चाहिए शायद यही सोचकर ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्री बाई को शिक्षित करने का निर्णय लिया किन्तु इस निर्णय पर खरा उतारने के लिए सावित्रीबाई को कितने संघर्षों से गुजरना पड़ा होगा । आगे चलकर वह भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवियित्री बनीं । उन्होंने अपने पति ज्योतिरव गोविंद्रव फुले के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। 1852 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की । खुद के जैसी की बालिकाओं को विद्यालय तक लाना उनके लिए बहुत बड़ा कार्य था पर उनका यह योगदान राष्ट्र को सदैव स्मरण रहेगा ।
3.अहिल्याबाई होल्कर-
शिवभक्तिनि महारानी मल्हाराओ अहिल्याबाई होल्कर मराठा साम्राज्य की प्रसिद्ध महारानी तथा इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खण्डेराव की धर्मपत्नी थीं। देखने-पढ़ने से तो ऐसा लगता है कि राजसी सुख में भला किसी को क्या कष्ट और किन संघर्षों का सामना करना पड़ सकता है? महारानी अहिल्याबाई होल्कर का वैवाहिक जीवन पूरी तरह से सुखों से सम्पन्न नहीं था, ससुर ने साथ दिया, उन्हे शिक्षित किया और साहस दिया। पति से दुखी होने के बाद भी पुत्र को राजगद्दी के योग्य बनाने में जीवन समर्पित किया। समय की मार ने पुत्र के साथ-साथ और अपनों को भी खो दिया पर निराश नहीं हुई। अहिल्याबाई होल्कर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। इनके बारे में अलग अलग राज्यों की पाठ्य पुस्तकों में अध्याय मौजूद हैं।
चूँकि अहिल्याबाई होल्कर को एक ऐसी महारानी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंनें भारत के अलग-अलग राज्यों में मानवता की भलाई के लिये अनेक कार्य किये थे। एक योजना उत्तराखण्ड सरकार की ओर से भी चलाई जा रही है। जो अहिल्याबाई होल्कर को पूर्णं सम्मान देती है। इस योजना का नाम ‘अहिल्याबाई होल्कर भेड़ बकरी विकास योजना है। अहिल्याबाई होल्कर भेड़ बकरी पालन योजना के तहत उत्तराखणवड के बेरोजगार, बीपीएल राशनकार्ड धारकों, महिलाओं व आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को बकरी पालन यूनिट के निर्माण के लिये भारी अनुदान राशि प्रदान की जाती है। काशी विश्वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार में भी महारानी अहिल्याबाई होल्कर का योगदान रहा है।
4.दुर्गा भाभी-
ऐतिहासिक क्रांतियों का नाम लें तो सबसे पहले पुरुषों का नाम लें अधिकांशतः पुरुषों का ही नाम आता है। दुर्गा भाभी एक ऐसा नाम है जो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की जुबान पर रहता था। इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण बोहरा के साथ हो गया। भारत को स्वतंत्रता के दिलाने के आंदोलन के दौरान दुर्गा भाभी केवल एक साधारण सी घरेलू विवाहित थी पर स्वतंत्रता सेनानियों की हर संभव सहायता में आगे रहीं।
5. सरोजिनी नायडू-
भारत की कोकिला कही जाने वाली (nightingale of India ) सरोजिनी नायडू के पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक नामी विद्वान तथा माँ कवयित्री थीं और बांग्ला में लिखती थीं। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने 12 वर्ष की अल्पायु में ही 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की और 13 वर्ष की आयु में लेडी ऑफ दी लेक नामक कविता रची। सर्जरी में क्लोरोफॉर्म की प्रभावकारिता साबित करने के लिए हैदराबाद के निज़ाम द्वारा प्रदान किए गए दान से “सरोजिनी नायडू” को इंग्लैंड भेजा गया था सरोजिनी नायडू को पहले लंदन के किंग्स कॉलेज और बाद में कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में अध्ययन करने का मौका मिला। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह Bird of time बर्ड ऑफ टाइम तथा Broken wings ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया। भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद वे उत्तरप्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं।
6. कैप्टन प्रेम माथुर
प्रेम माथुर दुनिया की पहली महिला वाणिज्यिक पायलट हैं (डेक्कन एयरवेज, हैदराबाद) | उन्होंने 1947 में उसकी कमर्शियल पायलट का लाइसेंस प्राप्त किया। 1949 में प्रेमा माथुर ने राष्ट्रीय एयर रेस जीता। 1947 में इलाहाबाद फ्लाइंग क्लब से अपना कमर्शियल पायलट लाइसेंस प्राप्त किया। शुरुआत में उन्हें कमर्शियल एयरलाइनों से रिजेक्शन लेटर प्राप्त हुआ, क्योंकि वे महिला पायलटों को नियुक्त करके जोखिम नहीं उठाना चाहती थीं। उन्होंने पीछे हटने से इनकार कर दिया लेकिन क्लब ने यह सब नहीं सुना और प्रेम माथुर को कुछ भी रोक न सका। उन्होंने कई एयरलाइनों को लिखा और उन्हें केवल यही प्रतिक्रिया मिली कि “महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले आपातकालीन स्थितियों को संभाल नहीं सकती हैं।” लेकिन प्रेम माथुर ने आकाश की ऊंचाइयों को छूकर असंभव को संभव कर दिखाया।
7. विजयलक्ष्मी पंडित-
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में विजय लक्ष्मी पंडित ने अपना अमूल्य योगदान दिया। हालाँकि इनका जन्म तो समृद्ध नेहरू परिवार में हुआ था। फिर भी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में विजय लक्ष्मी पंडित ने अपना अमूल्य योगदान दिया। उनकी शिक्षा-दीक्षा मुख्य रूप से घर में ही हुई। 1921 में उन्होंने काठियावाड़ के सुप्रसिद्ध वकील रणजीत सीताराम पण्डित से विवाह कर लिया। गांधीजी से प्रभावित होकर उन्होंने भी आज़ादी के लिए आंदोलनों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। वह हर आन्दोलन में आगे रहतीं, जेल जातीं, रिहा होतीं और फिर आन्दोलन में जुट जातीं। यह भी सत्य है कि मोहक छवि की स्वामिनी विजयलक्ष्मी पंडित, भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की बहन थीं, उनका योगदान अमूल्य था।
8. शकुंतला देवी-
शकुंतला देवी ने गणित में अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देकर एक गणितज्ञ के तौर पर भारतीय नाम का परचम लहराया। शकुन्तला देवी जिन्हें आम तौर पर "मानव कम्प्यूटर" के रूप में जाना जाता है, बचपन से ही अद्भुत प्रतिभा की धनी एवं मानसिक परिकलित्र human calculator (गणितज्ञ) mathematician थीं। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनका नाम 1982 में ‘गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में भी शामिल किया गया। हाल ही में इनके ऊपर फिल्म भी बनी है -शकुंतला देवी , जिसमें इनका किरदार निभाया है अभिनेत्री- विद्या बालन ने। यह फिल्म amazon prime पर मौजूद है ।
9. मैडम भिकाजी कामा-
श्रीमती भीखाजी जी रूस्तम कामा (मैडम कामा) (हिन्दुस्तानी उच्चारण) भारतीय मूल की पारसी नागरिक थीं। वे जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज फहराने के लिए सुविख्यात हैं। उन्होंने लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया कि - ‘‘आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है।’’ यही नहीं मैडम भीकाजी कामा ने इस कांफ्रेंस में ‘वन्देमातरम्’ अंकित भारत का प्रथम राष्ट्रध्वज फहराया। बेहद सम्पन्न परिवार से होने के बावजूद ऐसी देशभक्ति की भावना को पूरे विश्व ने सराहा और इसलिए इन्हे कहा जाता है- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की जननी Mother of Indian Revolution
10. तारबाई-
ताराबाई का पूरा नाम ताराबाई भोंसले था। महारानी ताराबाई राजाराम महाराज की पहली पत्नी तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते की कन्या थीं। भारत एक ऐसा देश है जहाँ वीरांगनाओं और साहसी माहिलाओं की कमी नहीं रही है हालाँकि फिर भी तारबी की बातें कम होती दिखती हैं लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज से जुड़ा कोई भी व्यक्ति असाधारण कैसे हो सकता है? ताराबाई का विवाह छत्रपति शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम प्रथम के साथ हुआ राजाराम 1689 से लेकर 1700 में उनकी मृत्यु हो जाने के पश्चात अपने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी दित्तीय का राज्याभिषेक करवाया और मराठा साम्राज्य की संरक्षिका बन गयीं। औरंगजेब को बराबर की टक्कर दी और उन्होंने 7 सालों तक अकेले दम पर मुगलों से टक्कर ली और कई सरदारों को एक करके वापस मराठा साम्राज्य को बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ताराबाई मराठा साम्राज्य की सबसे ताकतवर महिलाओं में से निकली और जिस तरह से उन्होंने 7 वर्षों तक औरंगजेब से लड़ाई लड़ी हो उनकी महानता को दर्शाता है और उनकी दूरदर्शिता को भी।
11. रानी लक्ष्मीबाई-
झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। बिठूर की मनु से महारानी लक्ष्मीबाई तक का सफर सकारात्मक था पर उनका असली संघर्ष शुरू हुआ महारानी लक्ष्मीबाई बनने के बाद। महाराज गंगाधर राव का स्वर्गवास, दत्तक पुत्र दामोदर राव के अधिकारों की रक्षा और भारतीय स्वतंत्रता आदोंलन में बलिदान सभी कुछ उनकी वीरता को बताता है। तभी तो लिख गया है-
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
12. मेधा पाटेकर-
अभी तक हम यह देख समझ रहे थे कि कैसे किसी महिला ने कभी स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्ष किया तो कभी राष्ट्र के लिये लेकिन अब बात करेंगें उस महिला कि जिसने प्रकृति के लिए संघर्ष किया यानी मेधा पाटेकर, यह एक भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता तथा सामाज सुधारक है। मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की संस्थापक के नाम से जानी जाती है। उनहोंने नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत की थी। नर्मदा नदी को बचाने की जो मुहिम उन्होंने निःस्वार्थ भाव से चलाई, इस मुहिम में पूरे देश ने उनका साथ दिया। 28 मार्च 2006 में उन्होंने नर्मदा नदी के बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठने का निर्णय लिया। इन्होंने अपने जीवन में जो भी किया वह निःस्वार्थ समाजसेवा के उद्देश्य से किया।