आज की महिला किसी पर भी निर्भर नहीं है। महिलायें स्वतंत्र हैं इसलिए आत्मनिर्भर भी हैं। घर और समाज की बेहतरी के लिए महिलाओं ने घर की सीमा लांघ कर अपनी खुद की पहचान बनायी है। महिलाएं अब हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं चाहें नौकरी हो या व्यवसाय, वे पुरुष के साथ कदमताल मिला रही हैं। हम ऐसी ही एक प्रेरणादायक कहानी लेकर आये हैं, जिसे पढ़कर आपको भी गर्व होगा।
आज की महिला किसी पर भी निर्भर नहीं है। महिलायें स्वतंत्र हैं इसलिए आत्मनिर्भर भी हैं। घर और समाज की बेहतरी के लिए महिलाओं ने घर की सीमा लांघ कर अपनी खुद की पहचान बनायी है। महिलाएं अब हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं चाहें नौकरी हो या व्यवसाय, वे पुरुष के साथ कदमताल मिला रही हैं।
महिलाओं को आगे बढ़ने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहिए। अगर वे अपने पैरों पर खड़ी हैं, तो इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता है। महिलाएं सब कुछ कर सकती हैं, उन्हें बस खुद पर विश्वास होना चाहिए।
ऐसी ही विचारधारा से जुड़ी हैं केरल के वायनाड जिले में रहने वाली 64 वर्षीय राधामणि । वे स्थानीय प्रतिभा पब्लिक लाइब्रेरी के साथ काम करती हैं। दिलचस्प बात यह है कि उनका काम लाइब्रेरी में बैठकर लोगों को किताबें देना नहीं है बल्कि वह घर-घर जाकर लोगों को किताबें पहुँचाती हैं। इस काम के लिए, वह हर रोज लगभग चार किलोमीटर पैदल चलती हैं।
उन्होंने बताया, “मुझसे कई बार लोग पूछते हैं कि मैं उन तक किताबें पहुंचाने के लिए, किसी वाहन का इस्तेमाल क्यों नहीं करती। इसके दो कारण हैं – पैदल चलना और प्रकृति। चलना सेहत के लिए अच्छा होता है। सच कहूं, तो एक्टिव रहने के कारण ही मैं इस उम्र में भी स्वस्थ हूँ। जब मैं आसानी से चल सकती हूँ, तो किसी वाहन का प्रयोग करके प्रदूषण क्यों बढ़ाया जाए। इसलिए, मैं पैदल ही सब घरों में किताबें देकर आती हूँ।”
मात्र दसवीं कक्षा तक पढ़ी, राधामणि ज्यादा से ज्यादा लोगों को किताबों से जोड़ना चाहती हैं।
साल 2012 में, उन्होंने लाइब्रेरी में काम करना शुरू किया। वैसे तो यह लाइब्रेरी साल 1961 में बनी थी। लेकिन लोगों का इससे नियमित रूप से जुड़ना, कुछ साल पहले से ही संभव हो पाया है। खासकर कि महिलाओं का। वह कहती हैं, “महिलाओं को किताबों और लाइब्रेरी से जोड़ने के लिए, ‘केरल स्टेट लाइब्रेरी काउंसिल‘ ने एक खास पहल की शुरुआत की। अगर महिलाएं लाइब्रेरी नहीं आ सकतीं, तो हमें किताबों को महिलाओं तक ले जाना चाहिए। यह पहल महिलाओं के लिए शुरू हुई थी, लेकिन अब बच्चे और बड़े-बुजुर्ग भी मुझसे किताबें लेते हैं।”
पहले इस पहल का नाम Women’s Reading Project था और अब इस पहल को Book Distribution Project for Women and Elderly के नाम से जाना जाता है। इस पहल के अंतर्गत राधामणि पिछले आठ सालों से, लोगों के घर-घर जाकर किताबें पहुँचा रही हैं। वह कहती हैं, “मैं सुबह साढ़े पाँच बजे उठ जाती हूँ और घर का काम करने के बाद, लाइब्रेरी जाती हूँ। इसके बाद, कपडे के थैले में लाइब्रेरी से कुछ किताबें लेकर, उन्हें घर-घर देने जाती हूँ। मुझसे जो भी महिलाएं किताबें लेती हैं, उनका नाम, किताब का नाम और तारीख आदि जरूरी सूचनाओं को लिखने के लिए, मैं हमेशा अपने साथ एक रजिस्टर रखती हूँ।”
राधामणि रोजाना 40 घरों में किताबें देने के लिए, लगभग चार किलोमीटर की पैदल यात्रा करती हैं। वह बताती हैं कि घर पर ही किताबें पहुँच जाने से, किताबें पढ़ने के प्रति महिलाओं का रुझान बढ़ा है।
राधामणि बताती हैं कि लाइब्रेरी से कुल 102 लोग जुड़े हुए हैं, जिनमे से 94 महिलाएं हैं। आजकल ज्यादातर महिलाएं कामकाजी होती हैं। इस वजह से, वे दिनभर ऑफिस में ही रहती हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए, राधामणि ने खुद उन महिलाओं तक रविवार को किताबें पहुँचाने का फैसला किया। इसलिए, वह रविवार की जगह सोमवार को छुट्टी लेती हैं।
उन्होंने कहा, “कोरोना महामारी को ध्यान में रखते हुए, फिलहाल ज्यादा काम नहीं करना पड़ता। कोरोना के बढ़ते मामलों की वजह से, फिलहाल, मैं रोजाना सिर्फ 20 घरों में ही जाती हूँ। इस दौरान, मैं अपनी और दूसरों की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते हुए, सोशल डिसटेंसिंग तथा मुंह पर मास्क लगाने जैसे सभी निर्देशों का पालन करती हूँ। मुझे पैदल चलने से कोई थकान नहीं होती। पर हां! कभी-कभी किताबों का वजन थोड़ा ज्यादा हो जाता है। लेकिन, जब लोग मुझे किताबें लौटाते हैं और बताते हैं कि उन्हें किताब में क्या पसंद आया तथा वे और कौन सी किताब पढ़ना चाहते हैं, तो उनकी बढती दिलचस्पी देखकर, मैं किताबों का वजन और थकान जैसी परेशानियां भी भूल जाती हूँ। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों को किताबों से जोड़ पा रही हूँ।”
यक़ीनन राधामणि हम सबके लिए प्रेरणा हैं और हमें उम्मीद है कि उनकी कहानी से बहुत से लोगों को हौसला मिलेगा।