पिता घर बनाते हैं और बच्चे सदियों से घर को बांटते चले आये हैं उसी को मद्देनज़र रखते हुए यह कविता लिखी गयी है। जहाँ बताया गया है कि पिता को क्या-क्या अच्छा लगता वह घर को किस तरह से सजाता है और किस तरह से एक दिन सब कुछ बदल जाता है।
पिता घर बनाते हैं
सदियों से पिता,
घर बनाते आये हैं
पिता घर में कमरे
बरामदा बनाते हैं
और खुला छोड़ देते हैं
घर में एक आँगन
उसी आँगन में
कुछ पेड़ होते हैं
कुछ पौधे भी
वहीं पर चिड़ियाँ
घोंसला बना के
पैदा करती हैं
कुछ बच्चे
पिता घर बनाते हैं
जिसमें रहते हैं कई घर
जैसे घोंसला चिड़िया का
आँगन की कुर्सी
बढ़ई की बनाई
जो भर जाती है,
पिता के बैठते ही
और एक दिन
बच्चें कर लेते हैं
बंटवारा घर का
ख़त्म कर देते हैं
घर का आँगन
पिता का बाग
चिड़िया का घोंसला
वो कुर्सी भी
जो पिता के बैठते ही
भर जाती थी
घर का आँगन
तब हो जाता है
घुसलखाना
पिता घर बनाते है
और बच्चें बनाते हैं
घर को घुसलखाना
सदियों से