इस पूरी चर्चा का सार मात्र एक वाक्य में समझा जा सकता है - " दिल में कुछ, मुँह पर कुछ, अगर ऐसे बोल रहे हो, तो मत बोलो। हर इंसान एक जैसा नहीं होता, न तो उसकी ज़ुबान एक जैसी होती है। कोई मीठा बोलता है, कोई खरा। वैसे तो मीठा बोलने वालों की इज़्ज़त काफी होती है, खरा शायद ही पसंद किया जाता हो।
हर इंसान एक जैसा नहीं होता, न ही उसकी ज़ुबान एक जैसी होती है। कोई मीठा बोलता है, कोई खरा। वैसे तो मीठा बोलने वालों की इज़्ज़त काफी होती है, खरा शायद ही पसंद किया जाता हो। बात तो तब बिगड़ती है कि जब मुँह पर कुछ ज़ुबाँ पर कुछ और दिल में कुछ लेकर लोग बोलते हैं, ऐसा बोलने वाले न ही बोले तो ये दुनिया कितनी साफ़ हो जाएगी। लेकिन ऐसा हो जाये तो फिर हर कोई एक दूसरे से खफा हो जायेगा।
ज़ुबान छुरी से भी तेज़ होती है, वह मरहम का काम भी कर सकती है और मतलब का भी। ऐसा देखा गया है कि मतलबी लोगों की जुबां अक्सर मीठी होती है। और दिल से साफ़ लोग अक्सर कड़वे और गलत पाए जाते हैं। खरे लोगों का बोलने का तरीका गलत हो सकता है लेकिन उनकी नियत हमेशा गंगाजल के समान साफ़ होती है। वहीं मीठी भाषा में कहीं न कहीं मतलब की बू आ ही जाती है।
यह भी तर्क देना गलत होगा कि यदि कोई मीठी भाषा बोलता है, तो वह मतलबी ही होगा। लेकिन अब आप ही सोचिये अगर कोई इंसान इतना सोच कर, सामने वाले को कुछ बुरा न लगे यह ध्यान में रख कर कुछ बोलता है, तब या तो वह इंसान सच में एक सज्जन व्यक्ति होगा, या किसी दबाव में होगा या किसी मतलब के पूरा होने के फिराक में होगा।
हम सब हक़ीक़त से वाकिफ हैं, लेकिन हम सब कड़वा सुनने के आदि नहीं हैं, हमें मीठा ही सुनना पसंद हैं चाहे उसमें मतलब का रस क्यों न मिला हो। मीठा और खरा का अर्थ, सच और झूठ जितना हो सकता है। हम जिसे अपना मानते हैं उसे हम खुल के सही गलत की सलाह देते हैं, उसे जरुरत अनुसार डांटते भी हैं, उससे नाराज़ भी होते हैं लेकिन उसकी गलत बातों को सही नहीं ठहराते तथा उसे हम हर तरह से समझाने की कोशिश करते हैं। कुछ समय के लिए वह हमसे दुर्व्यहवार भी करता है। जो उसका साथ देते हैं उसे सही और हमें गलत समझने लगता है। अंत में वह अपनी मनमानी करता है, और फिर जब उसके साथ आगे चल कर कुछ बुरा होता है, तो उसकी मदद करने के लिए कोई भी मीठा बोलने वाला नहीं, वही खरा बोलने वाला अपना खड़ा मिलता है। तब जाकर उसे इस बात का एहसास होता है कि यह दुनिया कितने छलावों से भरी हुई है, बाहर से कितना सुंदर लेकिन अंदर सब कितना खोखला है।
अगर खरा बोलने वाले अपना कड़वापन छोड़ देंगे तो शायद फिर दुनिया झूठों से भर जाएगी, हर कोई हर किसी का प्रशंसक बन जायेगा, हर ज़ुबान मीठी और फरेब बोलेगी, साथ देने वाले हाथ शायद कम हो जायेंगे सुकून तो बहुत रहेगा लेकिन हिम्मत और ढाढस कौन बढ़ाएगा? खरा यानी ऐसी बोली जो किसी के हित के लिए बोली जा रही हो और शायद सामने वाले को कड़वी भी लगे लेकिन सच बता कर हम सच में उसकी फ़िकर कर सकते हैं। क्योकि इस ज़िन्दगी में हमें सब कुछ जानने को मिल ही जाता है, सही गलत एक समय पर विचारों पर निर्भर करता है। जैसे-जैसे हम आधुनिक हो रहे हैं वैसे-वैसे हमारे सोचने का तरीका भी बदलता जा रहा है। जहां पहले ज़ुबान देने पर पूरी रामायण रच गयी थी, अब लोग अपनी बातों से सेकंड भर में पलट जाते हैं। अब लोग मीठा सामने वाले को बुरा न लगे इसलिए नहीं बोलते बल्कि इसलिए बोलते है कि कहीं बुरा लग गया तो काम कैसे पूरा होगा इसलिए बोलते हैं।
खैर इस पूरी चर्चा का सार मात्र एक वाक्य में समझा जा सकता है - " दिल में कुछ, मुँह पर कुछ, अगर ऐसे बोल रहे हो, तो मत बोलो।