सफलता की कहानी

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09 Oct 2021
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ज़िन्दगी में सफल होने के लिए मनुष्य अपने सारे सुख को त्याग कर अपने लक्ष्य के लिए मेहनत करता है। सफलता का रास्ता बहुत कठिन है, इसमें हार भी है, लेकिन अंत जीत है।

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अधूरे को पूरा करने की एक कोशिश है, विदाई और यह कोशिश कभी पूरी होती है और कभी नहीं। अगर सही मायने में देखा जाए तो विदाई एक समारोह से बढ़कर, एक भावना है। बचपन से लेकर लड़कपन तक असल में हमें हमारे मां-बाप और भाई-बहनों ने ही पाला-पोसा है। हम पूरी तरह से मानसिक रूप से अपने परिवार पर ही निर्भर होते हैं। हमारा दुख, परिवार का दुख बन जाता है। ठीक इसी तरह हमारी खुशी, परिवार की खुशी बन जाती है। हम साथ में बैठते, उठते, सोते, खाना खाते से लेकर खेलने दौड़ने और दिन भर की हर गतिविधि में अपने इर्द-गिर्द किसी ना किसी रूप में अपने घरवालों को आसपास पाते हैं।

लेकिन फिर बढ़ते उम्र के चलते हमें अपने ज़िम्मेदारीयों से अवगत होना पड़ता है। कहते हैं, बचपन ही एक ऐसी अवस्था है जब इंसान का स्वार्थ, ईर्ष्या, रोष आदि हीन भावना से कोई वास्ता नहीं रहता। उस समय कौन अपना कौन पराया सबकी गोद में जाकर हर किसी का हम सब ने मन बहलाया। लेकिन युवा अवस्था में पहुँचने के बाद हमें दुनियादारी समझ आने लगती है। घर के लोग ही समाज के प्रभाव में जिम्मेदारी से अवगत कराते हैं। हमें अपने घरों से दूरी करनी पड़ती है, अच्छे कॉलेज की चाह में या नौकरी की तलाश में हमें अपने आरामदायक घर को छोड़ कर ज़िन्दगी की जद्दोजहद को सहन करने की सीख लेने के लिए घर से निकलना पड़ता है। उसके बाद तरह तरह के लोग हमें मिलते है कुछ हमें धोखा दे कर ज़िन्दगी की सबसे बड़ी सीख दे जाते हैं और कुछ साथ दे कर ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाते हैं। सफलता की सीढ़ी काफी लंबी और कठिन है, जिसे हांसिल करने की होड़ में हर युवा अपने तरीके से लगा हुआ है। असफल होते होते वह थक जाता है, फिर भी उठकर कदम बढ़ाता है। जिसके हौसले जितने बुलन्द होते हैं उसकी जीत उतनी शानदार होती है। इस दौरान हमें रिश्तों के असली मायने पता चलते हैं। यदि माँ का लाडला बड़ा होकर पैसे न कमा रहा हो तो वह नकारा कहलाने लगता है। उसके घर के लोगों का उसके प्रति नज़रिया ही बदल जाता है। बेटों से चलो लोग उम्मीद भी रखते हैं, बेटियों को तो बचपन से शादी करके ससुराल जाना है यही सिखाया जाता है। लेकिन फिर भी अब आधुनिकता वाले इस समाज में सोच भी बदलती दिख रही है। अब बेटियों को भी सफलता की सीढ़ी चढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। घर से बाहर उन्हें भी पुरूषों के साथ कंधा मिलाकर चलने की आज़ादी दी जाने लगी है। हर रोज़ हम भागती दुनिया के साथ चलने के लिए कितनी मेहनत करते हैं। माँ का फ़ोन आता है, कैसे हो ? हम ठीक हैं, कह देते हैं। लेकिन हमारा हृदय जानता है कि भीड़ भाड़ वाली इस ज़िन्दगी में हम कितने अकेले हैं। 

कोई सिविल परीक्षाओं की तैयारी में लगा हुआ है तो कोई नीट या आईआईटी की, जिसमें सफल होने वालों की तुलना में असफल होने वालों की संख्या अधिक है। ऐसा क्यों है कि, हर क्षेत्र में इतनी भीड़ है लेकिन बस कुछ लोग ही उसमें सफल हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई कलाकार नीट के लिए तैयारी कर रहा हो क्योंकि पिता जी ने उसके डॉक्टर बनने का सपना देखा हो। या कोई पत्रकार हो जो आईटीआई की कोचिंग में धक्के खा रहा हो क्योंकि किसी ने उसको सलाह दी हो कि इसके बाद ज़िंदगी आबाद हो जाएगी। ऐसे ही लोग भीड़ का हिसा बन जाते हैं और जब तक वह अपने असली मंच पर नहीं पहुँच पाते उन्हें असफलता और उदासी ही मिलती है। अब मंजिल तक पहुचने के लिए भी रास्ता सही चुनना पड़ता है अन्यथा ज़िन्दगी भटकते हुए ही गुज़र जाती है और पता बहुत बाद में लगता है। लेकिन कहते हैं न  कि देर आये दुरुस्त आए। समय रहते हुए, हम किस क्षेत्र में माहिर हैं इसका पता लगा लेना चाहिए। जब हम सही रास्ते पर बिना किसी रुकावट के चलने लगेंगे तो क्या मज़ाल है कि मंज़िल तक न पहुँच पाए। सफल होने के बाद घर से लेकर रिश्तेदार तक हर किसी का नज़रिया बदल जाता है।

हम सब महेंद्र सिंह धोनी के बारे में जानते हैं, अब सोचिये कि अगर वह अपने पापा के कहने पर टिकट कलेक्टर की नौकरी करते तो क्या आज हम उनके हेलीकॉप्टर शॉट को देख पाते ? क्या भारत को इतना शानदार कप्तान मिल पाता? कितना कठिन फैसला रहा होगा उस समय की पैशन को चुने या फिर करियर बनाये। खेलना उनका शौक था, उनके पिता जी का मानना था कि खेल से पैसे नहीं कमाए जा सकते। लेकिन फिर भी धोनी अपने पिता से छुप-छुप कर प्रैक्टिस किया करते थे। और आज हम सब जानते है कि उन्होंने अपने जीवन का कितना बड़ा और शानदार फैसला लिया, जिसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। उन्होंने हमें यह सीख दी है कि पैशन को फॉलो करने से हम सकून और शौहरत दोनों कमा सकते हैं। कामयाब होने के लिए हमें काबिल बनना होगा जिसके लिए सही राह चुनने की जरूरत होगी उसके बाद तो फिर मंज़िल झक मार के कदम चूमेगी। भीड़ का हिस्सा बनने से अच्छा है कि भीड़ से अलग हम अपनी दुनिया बनाये और अपनी काबिलियत के बदौलत हम दुनिया को करिश्मा कर के दिखाए।

धोनी के पीछे भी बहुत से लोग थे जो उनका साथ दे रहे थे और उनके अपने ही पिता अनजाने में उनका पैर सफलता से पीछे खींच रहे थें। क्योंकि माँ-बाप अपने बच्चों के लिए गलत फैसला कर सकते हैं लेकिन उनके इरादे कभी गलत नहीं हो सकते। लेकिन कभी-कभी कुछ माँ-बाप अपने बच्चों की तकदीर बनाने की कोशिश करने लगते हैं। यदि कोई बच्चा किसी कारणवश परीक्षा में कम नंबर पाता है तो उन्हें बच्चे से ज्यादा समाज की चिंता होती है। एक बच्चा क्यों फेल हुआ साल भर उसने क्या पढ़ा माँ-बाप इन सब चीजों को दरकिनार कर परिणाम आने के बाद सवाल करने लगते हैं। और यह जताते हैं कि उन्होंने अच्छे स्कूल में महंगी फीस देकर पढ़ाया और ऊपर से ट्यूशन भी लगवाया फिर भी उनका बच्चा फेल कैसे हो सकता है? इसके पीछे के कई कारण हो सकते हैं। जिसका प्रमुख कारण हो सकता है कि बच्चे का मन पढ़ाई में न लगता हो।

हर कोई डॉक्टर या इंजीनियर ही नहीं बनता कुछ धोनी और नीरज चोपड़ा भी बनते हैं। गणित में 100 में से 3 नंबर पाने वाले के विराट कोहली बारे में हम सब जानते हैं लेकिन आज उन्होंने इतने रन बना दिये हैं कि जिसे गिनकर आपको उन पर गर्व होगा। अब सोचिये आखिर क्यों उनके नंबर कम आते होंगे अगर उनके माता पिता ने उन्हें ज़बरदस्ती पढ़ने के लिए कहा होता तो क्या इतना फुर्तीला बल्लेबाज़ हमें मिलता? 

इन कामयाब लोगों की ज़िंदगी से हम यह सीख सकतें है कि अपने ऊपर हमेशा भरोसा बनाये रखो और काबिल बनो, जो सपना देखा है उस रास्ते में कई रुकावटें आ सकती हैं। लेकिन बिना भटके कदम बढ़ाना होगा। कभी मन उदास होगा, कभी हताश होगा लेकिन हमें चलते जाना होगा। कुछ अपनों को नाराज़गी होगी, खुद को साबित कर उन्हें मनाना होगा, लेकिन चाहें, जो हो हार नहीं मानना होगा। समाज के ताने ऊर्जा का काम करेगी, तकदीर को बदलने की चाह उतनी तीर्व होगी। विफलताओं से हौसलें पर चोट लगेगी और फिर अटल जीत मिलेगी। लेकिन इस दौरान संयम, धैर्य और अनुशासन इन तीनों की जरूरत होगी। जिनमें अनुशासन सबसे पहले आता है।

 अगर हमारे पास अनुशासन की चाबी है, तो हम किसी भी लक्ष्य को सही दिनचर्या और लगातार अभ्यास द्वारा कम से कम समय में पा सकते हैं। इसके बाद धैर्य काम आता है क्योंकि कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि हमारे लगातार अभ्यास और कठिन परिश्रम के बाद भी सफलता हमारे हाथ नहीं लगे। और ऐसे में हम ख़ुद पर सन्देह करने लगते हैं कि हमारी दिशा सही तो है? तो सफलता ना मिलने पर खुद पर संदेह करने बजाय हमें संयम बना कर रखना चाहिए। जहां ज्यादातर युवाओं को भारतीय क्रिकेट टीम में 20 से 21 वर्ष की उम्र में पहला मैच खेलने को मिल जाता है। वहीं महेंद्र सिंह धोनी को 26 वर्ष की उम्र में भारतीय टीम में पहला मौका मिला लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और संयम बनाएं रखा। जो कि एक बहुत बड़े सबक और संयम की मिसाल है।

हम घर से दूर किसी छोटे से कमरे में बड़े-बड़े सपने सजाते हैं। उसके लिए रोज़ खुद को तैयार बनाते हैं। घर से जब निकले थे तो आराम को भी वहीं छोड़ आये थे, केवल घर वालों की उम्मीदों को सीने से लगाये हैं। घर पर माँ से फरमाइशें कर तरह-तरह के पकवान खाने वाले, आज खुद से खाना बनाने लगे हैं। भीड़ में खुद की पहचान बनाने की होड़ में हम कितना कुछ सह कर सफल बन पाते हैं। यूं ही नहीं लोग अपने सफलताओं की कहानी बताते हैं, क्योंकि लोग उसे सुनना और उससे सीखना चाहते हैं। सफल होने के बाद भी हमें इस मुकाम को बनाये रखने के लिए प्रतिदिन उतनी ही मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि सफल होना है तो मात्र एक शुरुआत भर है लेकिन लंबे अंतराल तक और निरंतर प्रयास के द्वारा सफलता को बनाए रखना एक चुनौती से कम नहीं है। हम समाज में जीते हैं और हमें हार से ज्यादा डर समाज के द्वारा उठाए जाने वाले प्रश्नों से लगता है। ऐसे में मन में एक विचार आता है कि समाज तो आज तक कहता आया है और आगे भी कहेगा और हमें समाज के विचारों से विदाई लेकर खुद को अपने लक्ष्य के प्रति खुले मन और दिमाग से निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। कहा गया है न, कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना…..

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