ख़ामोशी

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27 Aug 2021
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समाज में महिलाओं के लिए बनाये गए कुछ नियम किसी भी तरह मनुष्यों के लिए निर्धारित नहीं लगते है। और यदि नियम नहीं भी बनाये गए हैं तो लोगों का व्यवहार उन्हें कोई और प्राणी होने का एहसास कराता है। बावजूद इसके महिलाएं खुद को साबित करने का अवसर ढूंढ़ ही निकालती हैं।

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कब तक चुप रहूं, कब तक बेड़ियों में बंधू,

कब तक रखूं ये ख़ामोशी, कब तक रखूं ये ख़ामोशी,

कब तक दर्द सहूं, कब तक स्वीकार करूँ,

कब तक रखूं ये ख़ामोशी, कब तक रखूं ये ख़ामोशी। 

 

कहीं परिवारों ने ख़ामोश किया,

कहीं हालातों ने खामोश किया,

कहीं समाज के ताने बनी ख़ामोशी,

कहीं समाज के ताने बनी ख़ामोशी। 

 

जब-जब पैर निकालना चाहा पिंजरे से,

तब-तब रीति-रिवाजों के पैर निकले बाड़े से,

रोक दिया पैरों को;

दिखावे की दहाड़ बनी ख़ामोशी, बनी ख़ामोशी। 

 

कैसे भी निकले पंछी बन उड़ने की ख्वाहिश लिये,

ऊँची उड़ानें भरी हमनें दिल में उमंगों की नुमाइश लिये,

कुछ चीलों की नज़रों ने पकड़ा,

उनकी नज़रें आज बनी ख़ामोशी, बनी ख़ामोशी। 

 

दरिंदों के हाथों जैसे कोई खिलौना,

मेरे उस दर्द का कोई आधार न था,

जलते तो हम पहले भी थे; इस जलन का कोई पार न था।

दर्द और तड़प में भी लड़ी मैं, पर;

साँसों की अंतिम लय बनी ख़ामोशी, बनी ख़ामोशी। 

 

चार ख़िलजी के बीच एक पद्मावत बचना एक अजूबा था,

जौहर का ना वक्त मिला शरीर हवस की आग में डूबा था,

बन गयी थी जिन्दा लाश आज मैं,

अपनी ही चीखें आज बनी ख़ामोशी।

 

निकलूं अकेले रातों में निडरता का साया लिए, 

किसी उँगली की ज़रुरत ना हो; संग में विश्वास की छाया लिए,

आज विश्वास ही धोखा है,

धोखे का हर ध्येय बनी ख़ामोशी।

 

बेटियों को लक्ष्मी माना इसलिये गहने और पैसों में तोला,

धन के लालची कुकर्मियों ने बाजार की वस्तुओं में मोला,

जिनका अपना ज़मीर नहीं वो दूसरों का किरदार नापते,

बाजारों की यह खोखली शान बनी खामोशी, बनी ख़ामोशी। 

 

अकेले जब राह चलती हूँ, हर पल सहमी रहती हूँ,

किसी की नजरों में ना आ जाऊं खुद की नजरों में छुपती रहती हूँ,

पीछे पत्तों के शोर भी किसी अनहोनी की दस्तक लगते हैं,

अनचाही अनहोनियों की दस्तक आज बनी ख़ामोशी, बनी ख़ामोशी। 

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