वक़्त हमें ऐसी परिस्थियों से गुजारता है, जो हमें मानसिक रूप से विचलित कर देता है। हम इस समय में ना ही खुल के हसते हैं, ना ही किसी से मिलते हैं, यहाँ तक कि हमें कुछ खाने-पीने का मन भी नहीं करता है। हम इस चीज़ को समझने में बहुत वक़्त लगा देते हैं कि ख़ुशी का रास्ता हमें खुद से ढूँढना पड़ता है। जब हम यह जान लेते हैं तो हमारे पास खुश रहने के अनगिनत मौके रहते हैं।
रह जाती है एकाकी महीनों तक,
एक लम्हा भी ख़ुद से गुज़ारा नहीं होता,
शामें चढ़ी हैं तन्हाइयाँ लिए अब
दिन का भी दिन से गुज़ारा नहीं होता।
कुछ रह जाती थीं जो साज़िशें ज़माने की;
उनका भी कोई ठिकाना ना रहा।
ग़ुम रहूं मैं फिर अंधेरों में;
घर में अब वो ख़ौफ़ पुराना ना रहा।
ख़ुद से मिलूं जिस पल, मुस्कुरा दूँ;
अब तो आदतें कुछ यूँ हो गयी हैं,
खो जाती थी, ज़िंदगी जिस भंवर में;
उस भंवर की कहानी कहीं खो गयी है।
कब तक घिरुंगी में इन बेचैनियों में
खुशियों की कोई कहानी शुरू हो
चलें संग कुछ तो ठिकाने नए से
मुक़ाम-ए-सफर भी कुछ नया सा शुरू हो