चलो उतारें, आभार का भार!

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21 Sep 2021
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कहते हैं इंसान के सफल होने के पीछे किसी न किसी का हाथ होता है और हम सब घर से लेकर बाहर तक सहायक लोगों के आभारी हैं। हम बिना साहारे आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन बिना साथ के जीवन में आगे बढ़ना सम्भव नहीं। हमें हमेशा उदारवादी स्वभाव से सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते रहना चाहिए। हमेशा खुश रहना और दूसरों को खुश रखना चाहिए, इससे ज़िन्दगी आनंदमयी हो जाती है। 

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जीवन के हर मोड़ पर साथ निभाने वालों का धन्यवाद जरूर करना चाहिए और यही भावना कृतज्ञता कहलाती है। कृतज्ञता का अर्थ है कि हम सब धन्य हैं, उन सबका जिन्होंने हमारे जीवन में हर कदम पर साथ दिया। जिनके आभार के भार से हमारा हृदय सराबोर है। इस भावना को विश्व स्तर पर 1965 में विस्तार किया गया था, जिसमें संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया भर के लोगों का आभार व्यक्त किया था। वहां से लौटने के बाद विभिन्न देशों ने मिलकर 21 सिंतबर को आभार व्यक्त दिवस के रूप में मानने की घोषणा की थी।

चलिए आज कृतज्ञता दिवस के मौके पर हम हर उस शख्स के लिए आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होंने हमारे जीवन में सहायक की भूमिका अदा की है। और इनमें सबसे पहला नाम आता है 'मां' का। जन्मों उपरांत हमनें जब दुनिया में कदम रखा तो सबसे पहले जिस हाथ नें हमें थामा उस 'माँ"' के आभार को उतारना शायद ही मुमकिन हो, लेकिन हम कोशिश ज़रूर कर सकते हैं। 

बचपन में नहलाने- धुलाने से लेकर डांट- मार लगाने तक ‘मां’ की भागीदारी हमारी हर छोटी से बड़ी चीज़ तक रहती है और हम कह सकते हैं कि हमको बनाने में मां का सबसे बड़ा हाथ होता है। ज़ाहिर है जिस व्यक्ति ने अपना पूरा समय हमारे व्यक्तित्व को बनाने में लगाया है और जिसने माँ बनने उपरांत अपनी ज़िन्दगी के हर पल को हमारे ऊपर पूरी तरह से न्योछावर कर दिया। ऐसे में हमारा भी उनके लिए कुछ कर्तव्य बनता है कि हम उन्हें इस बात का एहसास दिलायें कि उनके बिना हमारा अस्तित्व मुमकिन ही नहीं। हालांकि अगर खुद मां से पूछा जाए उन्हें अपने बेटे या बेटी से क्या उम्मीदें हैं तो, अक्सर यही जवाब देंगी- "बस जहां रहो खुश रहो बेटा"। 

माँ जहां हमें भावनाओं से सराबोर करती हैं वहीं पिता हमें हर कठनाई से लड़ने के लिए सक्षम बनाते हैं। हमारा कर्तव्य बनता है कि जिसने हमको इतना कुछ दिया है कम से कम छोटी-छोटी खुशियां देकर हम उन्हें खुश कर सकते हैं। अपने पैरों पर खड़े होकर, बुढ़ापे में उनकी लाठी बनकर, उनको तवज्जो देकर और उनको ठीक वैसा ही महसूस कराया जाए जैसा कि उन्होंने हमें हमारे बचपन में महसूस कराया था। क्योंकि बुढ़ापा भी बचपन जैसा ही होता है। उस वक्त इंसान न चल-फिर सकता है न खुद से उठ-बैठ सकता है और न ही वो खुद से खा-पी सकता है। ऐसे में हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उनकी आखरी सांस तक उनका हाथ थामे रहें और जो लोग ऐसा नहीं करते हैं, उनसे यह सवाल है कि, क्या होगा अगर आपकी बेटे या बेटी आने वाले कल में यानी आपके बुढ़ापे में आपका साथ न दें?

बड़े भाई की डांट, बहन का प्यार, दादा-दादी के लाड़ से आगे बढ़ता हमारा जीवन कितना आनंदमयी होता है। जब भी हम गिरते हैं या रास्ते से भटकते हैं, तो सबसे पहले परिवार हमारा हाथ थामता है। इसके साथ स्कूल के मास्टर साहेब, दायी, घर में काम करने वाली बाई या सड़क पर कूड़ा उठाने वाले कर्मचारी और अन्य हर वह शख्स जो हमारे इर्द-गिर्द सहायक हैं उन्हें हम धन्यवाद करते हैं।

कहते हैं इंसान की सफलता के पीछे किसी न किसी का हाथ ज़रूर होता है और वो इंसान कोई भी हो सकता है। कोई  दोस्त, माता पिता या फिर कोई अध्यापक भी…बस जरूरत है, तो उस सही व्यक्ति से टकराने और उसको पहचानने की। एक इंसान के व्यक्तित्व को निखारने के लिए उसके मां बाप सबसे बड़ा किरदार निभाते हैं। मां बाप की परवरिश की वजह से ही इंसान, मकान की कच्ची नींव से एक पूरा घर बनकर तैयार हो पाता है। मां-बाप की वजह से ही इंसान के रहन-सहन से लेकर उसके हाव भाव तक हर चीज की झलकियां उसके व्यक्तित्व में देखी जा सकती हैं। मां बाप के बाद जो अगला नाम आता है वह है अध्यापक का। ठीक मां-बाप की तरह है, अध्यापक भी मिट्टी को सोना बनाने की काबिलियत रखता है। अगर एक अध्यापक चाहे तो अपने शिष्य को, शिक्षा के साथ-साथ भौतिक जानकारियां और सही मार्ग दिखा कर शिक्षक के लिए नए मार्ग खोल सकता है।

शिक्षक के बाद अगला नाम आता है वह है दोस्तों का, वह कहावत तो हम सब ने सुन रखी है कि जैसी संगत वैसी रंगत। अगर दोस्त सच्चे हैं, तो वह आपको सही मार्ग दिखला कर आपका भविष्य उज्जवल कर सकते हैं लेकिन अगर संगत खराब है तो जाहिर सी बात है उसका प्रभाव व्यक्ति पर भी पड़ेगा। 

ज़िन्दगी बहुत बड़ी किताब है और जिसकी सीख हमें अलग-अलग इंसानों से मिली। चलना, बोलना, बैठना और नैतिकता से परिचय हमने परिवार से सीखा। बाहर की दुनिया से हमने व्यक्तिगत विकास सीखा, रिश्तेदारों के तानों ने हमें कुछ करने की सीख दी, दोस्तों के कंधों ने ज़िन्दगी और खुशनुमा कर दी। इन सब के साथ आगे बढ़ते हमारे कदम जब भी लड़खड़ाए, सहारा देकर अपाहिज बनाने के बजाए, उन्होंने हमारा साथ देकर हमें दौड़ने के लिए उत्साहित किया। कहते हैं कि रीढ़ की हड्डी के बिना इंसान का शरीर बेकार हो जाता है। ठीक उसी तरह हमारे जानने वाले दोस्त, रिश्तेदार, सगे संबंधियों और अपने मां बाप के बिना हम अपनी ज़िन्दगी में आगे बढ़ ही नहीं सकते।

जिस तरह धरती गोल है ठीक उसी तरह जीवन का चक्र भी गोल है। अगर हम सामने वाले को समय-समय सराहते हैं, उसकी तारीफ और आलोचना करते हैं और उसको ढेर सारा प्रेम देते हैं एवं रिश्तों की अहमियत को समझते हैं तो कहीं ना कहीं आगे चलकर मुसीबत के समय में यह हमारे साथ खड़े रहते हैं।

अगर हम सामने वाले को सराहेंगे ही नहीं और उससे अच्छी तरह से व्यवहार ही नहीं करेंगे तो जाहिर सी बात है सामने वाला भी हमारे साथ वही बर्ताव करेगा.. जिससे हमको बुरा लग सकता है।

इसीलिए हमें अपने आसपास के लोगों और अपने जानने वालों से अच्छे से पेश आना चाहिए और उनके साथ हमेशा सच्चे रहने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि एक कहावत है न….. इंसान मरने के बाद भी तब तक जिंदा रहता है जब तक उसके जानने वाले उसके बारे में बात करते हैं और जब उसके जानने वाले ही उससे खफा हो जाएंगे तो फिर शायद उसके बारे में बात ही न हो। 

जिस प्रकार मनन्त पूरी होने के बाद मंदिर में ईश्वर से हम धन्यवाद करते हैं उसी प्रकार हमें खुद का भी धन्यवाद करना चाहिए क्योंकि आपने जीवन के हर दर्द को सहकर इतना लंबा सफर तय किया, अभी आगे और करना है। बिना आत्मसम्मान के कोई हमारी कदर नहीं करेगा, और करना भी नहीं चाहिए। जो इंसान खुद के बारे में नहीं सोच सकता वो किसी के बारे में क्या सोचेगा। ऐसे व्यक्तियों का सहयोग करने वाले उनसे किसी भी प्रकार की कृतज्ञता की अपेक्षा नहीं रखते। 

मनुष्य को उदारवादी स्वभाव का होना चाहिए, उसे किसी के सहयोग को भार नहीं बल्कि उनका शुक्रगुज़ार होना चहिए। कुछ व्यक्तियों का मानना है कि उन्हें किसी की मदद  नहीं चाहिए वह जीवन में स्वयं सक्षम हैं। ऐसे विचार वाले व्यक्ति या तो वहम में जी रहे हैं या तो अहंकार के चलते अपने सोचने-समझने की शक्ति से वंचित हो चुके हैं। उनका कथन तब सही होता जब वह सहारे की बात करते न कि साथ की। व्यक्ति बिना किसी सहारे के आगे बढ़ सकता है, लेकिन बिना किसी के साथ के एक कदम भी बढ़ाना सम्भव नहीं। ऐसे व्यक्ति अकृतज्ञ होते हैं, उन्हें दुसरो द्वारा उनके लिए किये गए सहयोग स्वार्थवश लगता है। ऐसी भावना इंसान को खोखला बनाती है। इस प्रकार उनके चारों-तरफ नकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है। इसलिए उसके सहयोगी भी उससे हताश होने लगते हैं और एक समय ऐसा आता है कि, उनकी हीन भावना के कारण उन्हें समाज से दरकिनार भी कर दिया जाता है। यदि ऐसे विचार के इंसान की कोई मदद करता है तो वह उसे स्वार्थी समझता है चाहें प्रेम ही क्यों न निहित हो, जबकि उसे ऐसे सहयोगियों का आभारी होना चाहिए क्योंकि मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी है। कहीं न कहीं हम जिसे मानते हैं उसके सुख के लिए या उसे कठिनायों से बचाने के लिए उसकी हर तरह से सहायता करते हैं क्यों कि उसकी खुशियों में हम अपनी खुशी तलाश करते हैं। अब नजरिए की बात है कृतज्ञ व्यक्ति इसे प्रेम समझते हैं और अकृतज्ञ इसे समझते हैं स्वार्थ।

छोटे से लेकर बड़े सहयोगियों को अपनें तरफ से हमेशा आभारी होना चाहिए और उन्हें यह महसूस कराना चाहिए कि वह हमारी ज़िन्दगी में रीढ़ की हड्डी के रूप में कार्यरत रहे हैं। सड़क बताने वाले से लेकर रिक्शा चलाने वाले को ऑफिस में चाय पिलाने वाले को या गंदी सड़क पर झाड़ू मारने वाले, बदबूदार नालीयों को  साफ करने वाले, सुबह की नींद त्याग कर दूध और न्यूज़ पेपर देने वाले ऐसे तमाम लोग जो हमारी दैनिक क्रियाओं को सफल बनाने में अहम योगदान देने वाले हैं, उन सबको तहे दिल से शुक्रिया ! उनके बिना हमारी ज़िन्दगी का इतना लंबा सफर संभव नहीं है और न होगा।

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