ख़्याल को बुनना जितना कठिन है उतना ही कठिन है ज़िन्दगी को समझ पाना। ज़िन्दगी रोज़ रोज़ नए नए कारनामें, तजुर्बे और अनुभव प्रदर्शित करती रहती है। कभी हमने ख़ुशी मिलती है तो कभी गम मिलते हैं। इन्ही को तो ज़िन्दगी की उधेड़बुन कहते हैं। तो आइये कविता का आनंद लेते हैं।
ज़िन्दगी की उधेड़बुन में
धागे अक्सर टूट जाते हैं
उन्हीं हाँथों की उँगलियों से
जिनके पास सिरे थे
उन्हें सुलझाये रखने के
रेशा रेशा उगाने में लगे रहते हैं
तिनका तिनका बिखरते रहते हैं
साँस की सुई चुभती है
ज़िन्दगी सिलने में
हम भी उधड़े रहते हैं
अनायास ही किसी न किसी
कमीज के बटन की भांति
जिसका उखड़ जाना भी
गवारा नहीं
और रफ़ू करने की भी
मानो फुर्सत नहीं
सर्द रातों में
अधफटी ज़िन्दगी को
अंधेरे की डोर से सिलना
उतना ही व्यर्थ है
जितना कि आफ़ताब में
रौशनी भरना
इसी उधेड़बुन में
हम अक्सर
ज़िन्दगी को रफ़ू करना
भूल जाते हैं
याद रखते हैं तो सिर्फ
ज़हनी परेशानियां
उलझे हुए माँझे में
लिपटी हुई पतंग
कहो तो भेज दूँ
ज़िन्दगी अपनी
वक़्त हो तो भेज देना
उसे सुलझा कर
मैं रफ़ू कर लूंगा ख़ुदको
उन्हीं धागों से।