पेड़ों की रक्षा करने के लिए हमें अधिक से अधिक पेड़ लगाने चाहिए। क्योंकि पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं और जीवन के लिए आवश्यक ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं। हम जितने अधिक पेड़ों को लगायेंगे हम पर्यावरण के स्वास्थ्य सुधार में उतना ही योगदान कर सकेंगे। पेड़ हमें एक तरह से जीवनदान देते हैं। पेड़ों की रक्षा करने के लिए गौरा देवी पेडों से चिपककर खड़ी हो गयी थी और पेडों को काटने से बचाया था। उन्होंने पर्यावरण की रक्षा में अहम् योगदान दिया था। उनकी इस क्रांति को हमेशा याद किया जायेगा।
जीवन को स्वच्छ और स्वस्थ्य healthy and wealthy बनाए रखने के लिए हमारे पर्यावरण का स्वच्छ होना बहुत आवश्यक होता है। हम सबको मिलकर यही कोशिश करनी चाहिए कि पर्यावरण की रक्षा safety for environment में अपना अहम् योगदान दें। पर्यावरण स्वच्छ healthy environment रहेगा तो हम बीमारियों से बचे रहेंगे और पर्यावरण को बचाने के लिए सबसे आवश्यक है, पेड़ों को लगाना और उनकी रक्षा करना। क्योंकि पेड़ नहीं होंगे तो हम साँस नहीं ले पायेंगे। पेड़ फिल्टर की तरह कार्य करते हैं और किसी भी जगह की हवा की गुणवत्ता air quality को स्वच्छ रखने का कार्य करते हैं। पेड़ जीवन के लिए आवश्यक ऑक्सीजन का उत्सर्जन emitting oxygen करते हैं इसलिए पेड़ों की रक्षा करना हमारा सबसे पहला कर्तव्य है। ऐसे ही पेड़ों की रक्षा के लिए गौरा देवी ने भी अपना अमूल्य योगदान दिया था। इनका नाम इतिहास के पन्नों पर हमेशा अंकित रहेगा।
दरअसल गौरा देवी पर्यावरण की रक्षा के लिए अपनी जान देने को भी तैयार हो गयी थीं इसलिए पर्यावरण की रक्षा के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता है और भविष्य में भी याद किया जायेगा। गौरा देवी और गांव की अन्य महिलायें पेड़ों के साथ चिपककर खड़ी हो गयी थीं। उन सबने मिलकर ठेकेदार से कहा कि अगर आपको पेड़ों को काटना है तो उससे पहले आपको हमें काटना होगा। ये सब देखकर ठेकेदार को अपना निर्णय बदलना पड़ा और इस तरह से उन्होंने पेड़ों से चिपककर पेड़ों की रक्षा की इसलिए ये आंदोलन चिपको आंदोलन के नाम से जाना जाता है। क्योंकि गौरा देवी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए पेड़ों की रक्षा की थी इसलिए उनका नाम एक वीरांगना के रूप में याद किया जाता है।
गौरा देवी का जन्म 1925 में चमोली जिला chamoli district के लाता गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम नारायण सिंह था। उन्होंने उस समय पांचवीं क्लास तक पढ़ाई की थी और 11 साल की उम्र में उनकी शादी रैंणी गांव में हो गयी। रैंणी गांव के लोग अपना पेट पालने के लिये पशुपालन, ऊनी कारोबार और खेती-बाड़ी किया करते थे। 26 मार्च, 1974 को पेड़ों की कटाई रोकने के लिए 'चिपको आंदोलन' शुरू हुआ था। उसी आंदोलन में मुख्य भागीदार बनी थीं गौरा देवी जिन्होंने बिना डरे हुए साहस का परिचय दिया था। इसके लिए उन्होंने अन्य कई महिलाओं को भी प्रोत्साहित किया था। उनका कहना था कि ये पेड़ उनके लिए एक मायके की तरह हैं जिनकी उन्हें हर हाल में रक्षा करनी है।
दरअसल उत्तराखंड के रैंणी गांव के जंगल में लगभग ढाई हजार पेड़ों को काटने की नीलामी हुई थी। गौरा देवी Gaura Devi ने अन्य महिलाओं के साथ मिलकर इसका विरोध किया था। वो पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गयीं और वहाँ से हटी नहीं। उनका बस यही कहना था कि इन पेड़ो को काटने से पर्यावरण को बहुत नुकसान होगा। इस तरह उनकी जिद्द के आगे प्रशासन को भी झुकना पड़ा और जंगल कटने से बच गया। उनका कहना था कि इन्हीं जंगलों से हमें जड़ी-बूटी, फल-सब्जी और लकड़ी मिलती है। अगर आप इनको काटोगे तो गांव में बाढ़ आ सकती है और बहुत अधिकल नुकसान हो सकता है। वन विभाग के आदमियों ने उन्हें डराने धमकाने की बहुत कोशिश की पर वो अपनी जगह से हटे नहीं और इसका परिणाम ये हुआ कि जंगल कटने से बच गया।
वन विभाग ने जंगल काटने के लिए ठेकेदारों को निर्देश दिया था कि 26 मार्च को मजदूरों को लेकर चुपचाप से रैंणी गांव का जंगल काट दो। इसकी भनक जैसे ही गौरा देवी को हुई वो तुरंत अन्य महिलाओं के साथ मिलकर जंगल बचाने के लिए भाग पड़ी। गौरा देवी ने पर्यावरण के इतिहास में एक क्रांति ला दी। पर्यावरण की रक्षा के लिए मशहूर गौरा देवी को कौन नहीं जानता। पर्यावरण रक्षा के इतिहास में 26 मार्च का दिन हमेशा याद किया जायेगा। उन्होंने पेड़ों की रक्षा के लिए सारी महिलाओं को इकट्ठा कर दिया था। इस दिन पेड़ों को बचाने के लिए महिलाएं उनसे चिपककर खड़ी हो गयी थी इस वजह से ठेकेदार को अपना निर्णय बदलना पड़ा था। इस आंदोलन का प्रभाव देश के कई हिस्सों में पड़ा और लोगों को भी पर्यावरण की रक्षा की प्रेरणा मिली। चिपको आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली थीं गौरा देवी। इस महान क्रन्तिकारी महिला का नाम पर्यावरण की रक्षा के लिए हमेशा याद किया जाएगा।