महात्मा गांधी का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन Indian National Movement में अहम योगदान रहा है। जनवरी 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका South Africa से भारत लौट आए। इससे पहले उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में शोषण, अन्याय एवं रंगभेद की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन किया था।
महात्मा गांधी अपने अतुल्य योगदान के लिये ज्यादातर “राष्ट्रपिता और बापू” के नाम से जाने जाते है। महात्मा गांधी भारत की एक महान् विभूति ही नहीं , वरन् विश्व की महानतम विभूतियों में गिने जाते है। वे एक ऐसे महापुरुष थे जो अहिंसा और सामाजिक एकता पर विश्वास करते थे। उन्होंने भारत में ग्रामीण भागो के सामाजिक विकास के लिये आवाज उठाई थी, उन्होंने भारतीयों को स्वदेशी वस्तुओ के उपयोग के लिये प्रेरित किया।
दक्षिण अफ्रीका पहुंच कर उन्होंने भारत मूल के लोगो को बड़ी दयनीय अवस्था में देखा। उन्होंने उनकी दशा सुधारने का फैसला कर लिया और भारतीयों को उनके अधिकारों का बोध कराया। उन्होने उनमे जागृति लाकर उन्हें संगठित किया। दक्षिण अफ्रीका के आन्दोलन में सफलता के बाद गाधी जी भारत लौट आए।
वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य बन गए उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने अहिंसा का मार्ग अपनाया इसके साथ ही उन्होंने काग्रेस पार्टी के सामने - समाज सुधार और हिन्दू - मुस्लिम एकता जैसे रचनात्मक कार्यो को सुझाया। छुआछूत के खिलाफ उन्होंने जोरदार आवाज उठाई और अछूतो को ‘ हरिजन ’जैसा आदरणीय सबोधन दिया। हिन्दू - मुस्लिम एकता की रक्षा पर तो उन्होने अपनी जान तक दे दी।
ब्रिटिश सरकार ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को दबाने का भरसक प्रयास किया। कई बार उन्होने गाँधी जी तथा अन्य भारतीय नेताओं को पकड कर जेल में डाल दिया। लेकिन उन्होंने भारत को स्वतन्त्रता दिलवा दी। 15 अगस्त,1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ। वे भारतीय संस्कृति से अछूत और भेदभाव की परंपरा को नष्ट करना चाहते थे।
बाद में वे भारतीय स्वतंत्रता अभियान में शामिल होकर संघर्ष करने लगे। भारतीय इतिहास में वे एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने भारतीयों की आजादी के सपने को सच्चाई में बदला था।
आज के इस ब्लॉग में हम महात्मा गांधी की पांच उल्लेखनीय उपलब्धियों Five Remarkable Achievements of Mahatma Gandhi के बारे में विस्तार से जानेगे।
मोहनदास करमचंद गांधी Mohandas Karamchand Gandhi लोकप्रिय रूप से गांधी के रूप में जाने जाते हैं। उनके महान कार्य अभी भी भारत की चेतना में बसे हुए हैं। कारण बताना वैसा ही होगा जैसे ये बताना की आकाश नीला है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी का योगदान Gandhi's contribution to the Indian independence movement बहुत बड़ा है।
उन्होंने पूरे देश को लड़ाई के लिए तैयार किया और शायद पूरी दुनिया के सबसे बड़े स्वतंत्र संघर्ष का नेतृत्व किया। ब्रिटिश राज से भारत की स्वतंत्रता India's independence from the British Raj वीरतापूर्ण है और लगभग पूरी दुनिया में प्रतिरोध का प्रतीक बन गई है। यही कारण है कि गांधी का नाम भारत और उसके नागरिकों की चेतना में अंकित है।
भले ही भारत की आजादी का श्रेय कई अन्य बहादुर स्वतंत्रता सेनानियों जैसे बी.आर. अम्बेडकर, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस आदि के नाम भी है पर वो गांधी ही थे जिन्होंने इस आग को प्रज्वलित किया।
गांधी, जो एक बैरिस्टर के रूप में अभ्यास करने के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे। वहा से वह एक बदले हुए दृष्टिकोण के साथ भारत वापस आए थे। उन्होंने वहां जातिवाद का सामना किया और इस उस देश में जातिवाद के खिलाफ एक छोटे से आंदोलन का नेतृत्व किया।
इस आंदोलन का उनपर काफी प्रभाव पड़ा। उन्हें लगा कि यदि वह विदेश में ऐसा कर सकते हैं तो क्यों न अपने देश वापस जाकर उसे अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त करने का प्रयास किया जाए। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। गांधी जल्द ही एक राष्ट्रीय घटना बन गए और अहिंसक उपायों के माध्यम से भारतीयों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करने लगे।
उन्होंने कई मार्च, भूख हड़ताल, सार्वजनिक विरोध आदि के माध्यम से ऐसा किया। आज गांधी को दुनिया में अहिंसा के प्रतीक Gandhi the symbol of non-violence in the world के रूप में जाना जाता है और उन्होंने मार्टिन लूथर किंग जूनियर Martin Luther King Jr. जैसे अनगिनत महान राजनेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया है।
आइए एक नजर डालते हैं उनकी कुछ सबसे बड़ी उपलब्धियों पर-
चंपारण में, गांधी ने किसानों को कुछ राहत देने के लिए जमींदारों के खिलाफ एक अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व किया। उनके जिद्दी स्वभाव ने अंग्रेजों को एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर कर दिया जिससे किसानों को कुछ स्वतंत्रता मिली। भारत में यह उनकी पहली जीत थी।
दरअसल अंग्रेजी सरकार का विरोध देश में चरम पर था बावजूद इसके सही दिशा, सही प्रयास और असंगठित नेतृत्व के चलते कोई भी क्रांतिकारी अपने उद्देश्यों में कामयाबी हासिल नहीं कर पा रहा था। 1857 की पहली ही क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार को यह लग गया था कि हिंदुस्तान पर राज करने के लिए हिंदु-मुस्लमानों के बीच दूरी पैदा करना ज़रुरी है।
अंग्रेजों के जुल्म बढ़ रहे थे और अंग्रेजी हुकुमत को चुनौती देना बहुत मुश्किल था। विद्रोह करने वाले को बख्शा नहीं जाता था। भारतीय लोग गरीब से और गरीब होते जा रहे थे और किसानों की स्थिति बहुत ही ख़राब थी। उनके पास भर पेट न खाने को था और न पहनने को कपड़े थे। इसके बावजूद उन्हें मजबूर होकर नील की खेती करनी पड़ती और उस पर भी तिन कठिया ब्याज ने किसानों की हालत बहुत ख़राब कर रखी थी।
इसके बाद आखिरकार चंपारण में गांधी जी का आगमन हुआ। हुआ यूँ कि अफ्रीका में भारतीयों के लिए अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सफल सत्याग्रह के बाद जब वो भारत आए तो भारतीयों के चेहरे पर एक मुस्कान आयी।
लोगों के दुखों और अंग्रेजी हुकुमत की ज़्यादतियों का अहसास उन्हें पहली बार चंपारण आकर ही हुआ। दरअसल 1894 में अफ्रीका में सफल सत्याग्रह के बाद गांधी जी जब भारत लौटे और 1916 में लखनऊ में कांग्रेस के सालाना सत्र में शरीक होने पहुंचे तो वहां उनकी मुलाकात चंपारण के नील किसान राजकुमार शुक्ल से हुई। उन्होंने ही गांधी जी को चंपारण आने का निमंत्रण दिया।
राजकुमार शुक्ल ने गांधी जी को कई बार पत्र लिख कर चंपारण की स्थिति के बारे में अवगत कराया। साथ ही उन्होंने वहां अंग्रेजी सरकार द्वारा कराई जाने वाली जबरन नील की खेती और टिंकथिया लगान प्रणाली के बारे में भी बताया। चंपारण के किसानों की दयनीय स्थिति देख गांधी जी ने 17 अप्रैल को चंपारण सत्याग्रह की शुरुआत की।
चंपारण में ऊंची जाति वालों को छोटी जाति वालों की तुलना में कम लगान देना पड़ता था। इस समय समाज में कुरीतियां भी अपने चरम पर थी। चंपारण पहुंच कर गांधी जी ने वहां किसानों की स्थिति और को देखा। चंपारण में गांधी जी को देख गोरे घबरा गए थे। उन्होंने गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया और उन पर मुकदमा चलाना शुरु कर दिया।
टिंकाथिया प्रणाली में को अपनी भूमि के 20 भागों में से तीन भागों में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया जाता था और उस पर कर वसूला जाता था। उन्होंने चंपारण के किसानों की व्यथा अंग्रेजी हुकुमत के सामने रखी। जब अंग्रेजी हुकुमत ने उनकी नहीं सुनी तो उन्होंने अहिंसा की राह पर चलते हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन की बात कही।
इसके बाद अंग्रेजी प्रशासन डर गया और गांधी जी को जेल में डाल दिया गया। किसानों को घर से निकाल-निकाल कर नील की खेती के लिए मजबूर किया जाता रहा। धीरे-धीरे विद्रोह के सुर बढ़ते ही जा रहे थे। अंग्रेजी हुकुमत ने गांधी जी पर से मुकदमा हटाकर आदेश दिया कि किसानों की दुर्दशा पर रिपोर्ट तैयार करें और चंपारण छोड़ कर चले जाएं।
इसके बाद बिहार के गवर्नर ने एक कमेटी बनाई जिसमें गांधी जी को भी सदस्य के तौर पर रखा गया। इस कमेटी को किसानों की हालात के बारे में रिपोर्ट देनी थी। अंग्रेजी हुकुमत को लगा कि गांधीजी के कमेटी में होने के बावजूद किसान कमेटी के अन्य मजिस्ट्रेट के सदस्यों के सामने अपनी परेशानियां नहीं रख पाएंगे। लेकिन किसान बिना डरे अपनी परेशानी सरकारी कमेटी को बताने लगे। करीब 8,000 किसानों ने अपनी बातें रखीं।
इसके बाद कमेटी ने सिफारिश की किसानों का असंवैधानिक तरीके से छीना गया हिस्सा वापस दिया जाए और टिंकथिया पद्धति को समाप्त किया जाए। इसके बाद 100 सालों से चल रही टिंकथिया प्रणाली समाप्त हो सकी।
वर्ष 1918 गुजरात के खेड़ा जिले के लिए दर्दनाक था क्योंकि यह क्षेत्र बाढ़ और अकाल की चपेट में था। वहां के किसानों को भारी नुकसान हुआ लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें करों से मुक्त करने से इनकार कर दिया। गांधी ने वल्लभभाई पटेल के साथ मिलकर किसानों को करों का भुगतान न करके इसका विरोध करने के लिए प्रोत्साहित किया।
अंग्रेजों ने उनकी जमीनों पर कब्जा करके जवाबी कार्रवाई की लेकिन किसान नहीं माने। कुछ महीने बाद अंग्रेजों ने किसानों को सभी करों से मुक्त कर दिया और उनकी जमीन वापस कर दी। इस तरह उन्हें एक और जीत मिली।
खेड़ा एक जगह है जो गुजरात में है। जैसे चंपारण में किसान आन्दोलन हुआ था उसके बाद खेड़ा (गुजरात) में भी 1918 ई. में एक किसान आन्दोलन हुआ। जिस तरह गाँधीजी ने चंपारण में किसानों की दयनीय स्थिति को सुधारने का अथक प्रयास किया था वैसे ही खेड़ा में भी बढ़े लगान और अन्य कई जुल्म और शोषण से किसान पीड़ित थे। किसान जमींदारों को लगान न देकर अपना आक्रोश प्रकट करते थे। जब 1918 ई. में सूखा पड़ने के कारण फसल नष्ट हो गयी तो तब किसानों की मुश्किलें और भी बढ़ गईं।
नियमों के अनुसार यदि किसी भी कारण से फसल कम हुई हो तो वैसी स्थिति में किसानों को भूमिकर में छूट मिलनी थी लेकिन इसके बावजूद बम्बई सरकार के पदाधिकारी सूखा होने पर भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि उपज कम हुई है और वो किसानों को छूट नहीं देना चाहते थे। लगान के लिए किसानों पर दबाव डाला जाता था।
इसलिए चंपारण के बाद गाँधीजी ने खेड़ा के किसानों की परेशानियों को हल करने के बारे में सोचा। इसके लिए उन्होंने किसानों को बुलाया और सरकारी कार्रवाइयों के खिलाफ सत्याग्रह करने के लिए बोला। किसानों ने गाँधीजी की बात सुनी और उन पर ध्यान दिया। किसानों ने अंग्रेजों की सरकार को लगान देना बंद कर दिया। सरकार की सख्ती से किसान नहीं डरे और इस आन्दोलन में बड़ी संख्या में किसानों ने भाग लिया।
जून, 1918 ई. तक खेड़ा का यह किसान आन्दोलन (Kheda Movement) बहुत बड़ा रूप ले चुका था। अनेक किसानों को जेल में डाल दिया गया। अंत में किसान के गुस्से को देखते हुए सरकार को उनके सामने झुकना पड़ा और अंततः सरकार ने किसानों को लगान में छूट देने का वादा किया।
अमृतसर में जलियांवाला बाग की घटना के बाद, गांधी ने पूरे देश से असहयोग आंदोलन में भाग लेने का आग्रह किया। आंदोलन के अनुसार, भारतीय अब ब्रिटिश सामान नहीं खरीदेंगे और उनके स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार भी करेंगे। मूल रूप से, वह सब कुछ जिसे बनाने में अंग्रेजों ने अपना योगदान दिया था।
लंबे समय से अंग्रेजी शोषण का दंश झेल रही भारतीय जनता की प्रतिक्रिया वर्ष 1920 में आकर फूट पड़ी और इस दौरान गांधी जी के नेतृत्व में लगभग संपूर्ण भारत में एक व्यापक जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ। इसमें भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों की हिस्सेदारी रही और इसने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अहिंसक असहयोग की भावना का प्रदर्शन किया।
इसी आंदोलन को भारतीय इतिहास में असहयोग आंदोलन के नाम से जाना जाता है। असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्रवाई में बाधा उपस्थित करना था। असहयोग आन्दोलन गांधी जी ने 1 अगस्त, 1920 को आरम्भ किया। दरअसल सितम्बर, 1920 में असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम पर विचार करने के लिए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में 'कांग्रेस महासमिति के अधिवेशन' का आयोजन किया गया।
इस अधिवेशन की अध्यक्षता लाला लाजपत राय Lala Lajpat Rai ने की। इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार भारत में विदेशी शासन के विरुद्ध सीधी कार्रवाई करने, विधान परिषदों का बहिष्कार करने तथा असहयोग व सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रारम्भ करने का निर्णय लिया।
कलकत्ता अधिवेशन Calcutta Session में गांधी जी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।"
इस अधिवेशन के दौरान असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव की पुष्टि कर दी गई थी और आधिकारिक तौर पर असहयोग आंदोलन प्रारंभ हो गया था।
असहयोग आंदोलन के कई कारण हैं जैसे- पहले विश्व युद्ध के बाद भारत में विभिन्न आर्थिक कठिनाइयां उत्पन्न हो गई थी। इसके परिणाम स्वरूप महंगाई अत्यधिक बढ़ गई थी और भारत की जनता अत्यधिक परेशान थी, लेकिन इस स्थिति को सुधारने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। इससे भारतीय जनता अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोशित हो गई।
इसके अलावा, अमृतसर के जलियांवाला बाग Jallianwala Bagh in Amritsar में शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रही निहत्थी भीड़ पर अंग्रेजों ने गोली चला कर इस कुख्यात हत्याकांड को अंजाम दिया। इसके विरुद्ध भी संपूर्ण भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध एक तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। इस परिघटना ने भी भारतीयों को अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोशित किया। इन समस्त घटनाओं ने असहयोग आंदोलन को जन्म दिया।
वैसे तो भारत में आज़ादी दिलाने के लिए कई आंदोलन हुए थे, लेकिन उनमें से एक ऐसा आंदोलन हुआ था जिसने ब्रिटिश हुकूमत की जड़े हिला के रख दी थी। इस आंदोलन का नाम था नमक आंदोलन Namak Andolan महात्मा गांधी द्वारा 12 मार्च 1930 अहमदाबाद के पास साबरमती आश्रम Sabarmati Ashram near Ahmedabad से चालू हुआ था।
ब्रिटिश लोगों ने भारत लोगों पर चाय, कपड़ा अन्य सारी चीजों के साथ नमक जैसी चीज पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया था। उस समय भारतीय लोगों को नमक बनाने का अधिकार नहीं था। इंग्लैंड से आने वाले नमक के लिए भारतियों को कई गुना ज्यादा पैसे देने पड़ते थे। इसी कारण बापू ने Namak Andolan नमक का कानून हटाने के लिए यह सत्याग्रह चलाया। Namak Andolan लगातार 24 दिनों तक चला था। यह आंदोलन अहमदाबाद साबरमती आश्रम से दांडी गुजरात में 400 किलोमीटर तक चलाया गया था।
नमक आंदोलन महात्मा गांधी और कई सारे लोगों के द्वारा साबरमती आश्रम से चलकर दाडी तक 240 मिली लंबी यात्रा हुई थी। यह सत्याग्रह भारतीय महिलाओं के लिए सबसे बड़ा और शक्तिशाली मुद्दा था क्योंकि वह अपने परिवार के पेट भरने के लिए संघर्ष कर रही थी। नमक एक ऐसी चीज है जो अमीर से लेकर गरीब तक हर एक मनुष्य इस्तेमाल करता है। साथ ही पशुओं को खिलाने में भी इसका उपयोग किया जाता है।
इसी कारण से महात्मा गांधी ने Namak Andolan और दांडी कूच के बारे में लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। Namak Andolan देश की सबसे पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसके अंदर कहीं संख्या में औरतों ने भी हिस्सा लिया था। कानून भंग करने के बाद सत्याग्रहियों ने अंग्रेजों की लाठियां खाई थीं लेकिन पीछे नहीं मुड़े थे। 1930 में गांधी जी ने इस आंदोलन को चालू किया।
इस आंदोलन में लोगों ने गांधी के साथ पैदल यात्रा की और जो नमक पर कर लगाया था उसका विरोध किया गया। इस आंदोलन में कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें सी. राजगोपालचारी, पंडित नेहरू C.Rajagopalachari, Pandit Nehru जैसे आंदोलनकारी शामिल थे।
Namak Andolan के दौरान महात्मा गांधी के साथ-साथ 60,000 लोगों को भी उनके साथ गिरफ्तार किया था। नमक आंदोलन ने अंग्रेजों को पूरी तरीके से हिला दिया था। लोगों के मन में उत्सुकता बढ़ गई थी और कई सारे देशों में नमक बनाना शुरू कर दिया था। इस मुद्दे ने पूरे देश में जाति, राज्य, भाषा सभी की दीवारें तोड़ दी थी। दांडी तट पर पहुंचने के बाद महात्मा गांधी ने नमक बनाकर नमक का कानून तोड़ा था।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, गांधी ने घोषणा की कि वे अब भारतीयों को अंग्रेजों का पालन करने और युद्ध में भाग लेने के लिए नहीं कहेंगे। उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया जहां उन्होंने घोषणा की कि अंग्रेज तुरंत भारत छोड़ दें और भारतीयों को वह स्वतंत्रता दें जिनपर उनका अधिकार है। यह अंततः भारत की स्वतंत्रता का कारण बना।
भारत छोड़ो आंदोलन Quit India Movement-1942 गाँधी जी के प्रमुख आंदोलनों में से एक था। भारत छोड़ो आंदोलन को सही मायने में एक जन-आंदोलन माना जाता है जिसमें लाखों आम लोगों ने हिस्सा लिया था । इस आंदोलन ने युवाओं, कृषकों, महिलाओं व मजदूर वर्ग को भी बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। इस आंदोलन में पूर्ण स्वराज की मांग प्रबलता से रखी गई, एक अंतरिम सरकार बनाने का सुझाव दिया गया और अंग्रेजी राज की भारत से समाप्ति के लिए अंतिम आह्वान किया गया।
इस आंदोलन को “अगस्त क्रांति” के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यह 9 अगस्त 1942 को शुरू हुआ था। 14 जुलाई, 1942 को वर्धा में हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में गाँधी जी को आंदोलन की औपचारिक शुरुआत के लिए अधिकृत किया गया। 8 अगस्त, 1942 को बम्बई में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक हुई जिसमें अंग्रेजों से भारत छोड़ने और एक “कामचलाऊ” (अंतरिम) सरकार के गठन की बात कही गई।
जब अधिवेशन में इस प्रस्ताव पर कुछ विरोध के स्वर उभरे तब उन्हें चुनौती देते हुए महात्मा गाँधी ने इस आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की और कहा कि “यदि संघर्ष का यह प्रस्ताव नहीं स्वीकार किया गया तो मैं एक मुट्ठी बालू से ही कांग्रेस से भी बड़ा आंदोलन खड़ा कर दूंगा “। 8 अगस्त, 1942 को ऐतिहासिक ग्वालिया टैंक मैदान में बैठक हुई, इसी कार्यकारिणी की बैठक में वर्धा प्रस्ताव की पुष्टि की गई।
भारत छोड़ो आंदोलन प्रस्ताव पारित होने के बाद गाँधीजी ने “करो या मरो” Do or Die का नारा दिया। करो या मरो, जिसका अर्थ था- भारत की जनता देश की आज़ादी के लिए हर ढंग का प्रयत्न करे। गाँधी जी के बारे में भोगराजू पट्टाभि सीतारामैया ने लिखा है कि "वास्तव में गाँधी जी उस दिन अवतार और पैगम्बर की प्रेरक शक्ति से प्रेरित होकर भाषण दे रहे थे।
इस प्रकार 8 अगस्त 1942 को यह आंदोलन प्रारंभ हो गया। महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ों से तुरंत भारत छोड़ने को कहा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे शक्तिशाली आंदोलन की शुरूआत की। जब गांधी ने भारत को 'करो या मरो' का नारा दिया तो अंग्रेज़ी हुकूमत ने उसका जवाब भारी दमन से दिया। 8 अगस्त सन् 1942 की रात को कांग्रेस कार्यसमिति ने भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास किया।
9 अगस्त की सुबह-सुबह बंबई में और पूरे देश में अनेक स्थानों पर बहुत सी गिरफ्तारियाँ हुई और ‘ऑपरेशन जीरो आवर’ Operation Zero Hour के तहत कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमे गांधीजी भी शामिल थे। हालांकि गाँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फोड़ की कार्रवाइयों के जरिए आंदोलन चलाते रहे।
'भारत छोड़ो आन्दोलन' या 'अगस्त क्रान्ति भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन' की अन्तिम महान् लड़ाई थी, जिसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। क्रिप्स मिशन cripps mission के ख़ाली हाथ भारत से वापस जाने पर भारतीयों को अपने छले जाने का अहसास हुआ।
दूसरी ओर दूसरे विश्वयुद्ध के कारण परिस्थितियाँ अत्यधिक गम्भीर होती जा रही थीं। जापान सफलतापूर्वक सिंगापुर और बर्मा पर क़ब्ज़ा कर भारत की ओर बढ़ने लगा, दूसरी ओर युद्ध के कारण तमाम वस्तुओं के दाम बेतहाश बढ़ रहे थे। अंग्रेज़ सत्ता के ख़िलाफ़ भारतीय जनमानस में असन्तोष व्याप्त होने लगा था।
गाँधी जी वैसे तो अहिंसावादी थे, मगर देश को आज़ाद करवाने के लिए उन्होंने 'करो या मरो' का मूल मंत्र दिया। अंग्रेज़ी शासकों की दमनकारी, आर्थिक लूट-खसूट, विस्तारवादी एवं नस्लवादी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने लोगों को क्रमबद्ध करने के लिए 'भारत छोड़ो आन्दोलन' छेड़ा था।
गाँधीजी ने कहा था कि- "एक देश तब तक आज़ाद नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते।"
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी का योगदान बहुत बड़ा है। उन्होंने पूरे देश को लड़ाई के लिए तैयार किया और शायद पूरी दुनिया के सबसे बड़े स्वतंत्र संघर्ष का नेतृत्व किया। ब्रिटिश राज से भारत की स्वतंत्रता वीरतापूर्ण है और लगभग पूरी दुनिया में प्रतिरोध का प्रतीक बन गई है। यही कारण है कि गांधी का नाम भारत और उसके नागरिकों की चेतना में अंकित है।
You May Also Read
आज जब पूरा देश आज़ादी का अमृत महोत्सव Azadi Ka Amrit Mahotsav मना रहा है, गांधी और उनके विचार बहुत ज्यादा प्रासंगिक हैं
#RoleOfMahatmaGandhiInFreedomStruggle #GandhiJi
#IndependenceDay2023 #AmritKaal #AzadiKaAmritMahotsav
#GandhiYug #MahatmaGandhi #IndianIndependenceMovement