डॉ भीमराव अम्बेडकर की जयंती जिसे अम्बेडकर जयंती 2023 Ambedkar Jayanti 2023 के रूप में भी जाना जाता है, हर साल 14 अप्रैल को मनाई जाती है। इस दिन को डॉ अंबेडकर की स्मृति को सम्मानित करने के लिए भारत में सार्वजनिक अवकाश के रूप में मनाया जाता है, जिन्हें भारतीय संविधान के पिता Father of the Indian Constitution के रूप में भी जाना जाता है।
डॉ भीमराव अम्बेडकर एक प्रमुख समाज सुधारक, न्यायविद, अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने अपना जीवन भारत में दमित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए समर्पित कर दिया। उन्हें व्यापक रूप से भारतीय संविधान का जनक माना जाता है ।
अंबेडकर को बचपन से ही अपनी जाति के कारण भेदभाव से गुजरना पड़ा था और इसका उनके कोमल मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। बात 1901 की है जब अंबेडकर सतारा से कोरेगाँव अपने पिता से मिलने जा रहे थे तब बैलगाड़ी वाले ने उन्हें अपनी बैलगाड़ी पर बैठाने से इंकार कर दिया। दोगने पैसे देने पर उसने कहा कि अंबेडकर और उनके भाई बैलगाड़ी चलाएंगे और वह बैलगाड़ी वाला उनके साथ पैदल चलेगा।
कभी उन्हें जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया तो कभी किसी खास अवसर पर मेहमान की तरह जाने के बावजूद भी नौकर ने उन्हें यह कहकर खाना नहीं परोसा कि वह महार जाति से हैं। शायद यही सब कारण होंगे जिनकी वजह से बाबासाहेब ने जाति व्यवस्था की वकालत करने वाली किताब मनुस्मृति को जलाया था।
ये तो हम सभी जानते हैं कि डॉ भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) संविधान (Constitution) निर्माता के तौर पर प्रसिद्ध हैं, लेकिन हर कोई उनके जीवन की उपलब्धियों के बारे में नहीं जनता। पूरे देश में हर साल 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती
के रूप में मनाया जाता है। डाॅ. भीमराव अंबेडकर जी का पूरा जीवन संघर्षरत रहा है। जनहित में किये गए उनके प्रयासों और देश के गरीबों और दलितों के लिए किये गए उनके कार्यों के लिए उन्हें मरणोपरांत ‘भारत-रत्न’ (Bharatratan) का सम्मान दिया गया था।
आज इस आर्टिकल में हम डॉ अम्बेडकर के जीवन और उपलब्धियों का पता लगाएंगे, जिसमें उनका प्रारंभिक जीवन, शिक्षा, संघर्ष, भारतीय संविधान निर्माण में भूमिका, आंदोलन, योगदान,बाबासाहेब के बारे में कुछ रोचक तथ्य शामिल हैं, ताकि हम सभी उनके जीवन से प्रेरणा ले सकें।
‘मैं ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाता है।’- डॉ भीमराव अंबेडकर
देश में आज लगभग सभी नेता, दलितों को वोट बैंक यानि वोटों का जरिया तो मानते हैं पर उनकी दशा सुधारने के लिए कुछ खास नहीं करते, और आखिर करेंगे भी कैसे? क्योंकि एक गरीब दलित की व्यथा वही समझ सकता है जिसने गरीबी को पास से देखा हो और जिया हो।
आज उन सभी नेताओं का शुक्रिया जिन्होंने देश की आजादी से पहले और बाद में देश के दलितों और असहायों को कुछ विशेष अधिकार दिए और आज उन्हें सर उठाकर जीने का मौका दिया। भारतीय इतिहास के पन्नो में जब भी दलितों के कल्याण की बात की गयी तो पहला नाम बाबा साहेब अंबेडकर का ही पहले आया।
डॉ भीमराव अंबेडकर जी ने भारत की आजादी के बाद देश के संविधान के निर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया। इसके अलावा उन्होंने कमजोर और पिछड़े वर्ग के लोगों के अधिकारों के लिए पूरा जीवन संघर्ष किया। हम कह सकते हैं कि डॉ अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत और समतामूलक समाज के निर्माणकर्ता थे।
वे हमेशा से समाज के कमजोर, मजदूर, महिलाओं और पिछड़े वर्ग को शिक्षित करके सशक्त बनाना चाहते थे। यही कारण है की डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती को भारत में समानता दिवस और ज्ञान दिवस Equality Day and Knowledge Day के रूप में मनाया जाता है।
14 अप्रैल 1891 को डाॅ. भीमराव अंबेडकर का जन्म मध्य प्रदेश (MP) के एक छोटे से गांव महू (Mhow) में हुआ था। हालांकि, मूल रूप से उनका परिवार रत्नागिरी (Ratnagiri) जिले से ताल्लुक रखता था। अंबेडकर के पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और उनकी माता का नाम भीमाबाई था। डॉ. अंबेडकर महार जाति के थे जिसके चलते उन्हें बचपन से ही भेदभाव का सामना करना पड़ा। यही कारण है कि उन्होंने अपने पूरे जीवन भेदभाव का विरोध किया और गरीबों व पिछड़ों के हक़ की बात कही।
बी. आर. अंबेडकर बचपन से ही बुद्धिमान, गुणी और पढ़ाई में अच्छे थे। हालांकि, उस समय छुआछूत जैसी समस्याएं व्याप्त होने के कारण उनकी शुरुआती शिक्षा में काफी परेशानी आयी, लेकिन उन्होंने जात-पात की बातों को पीछे छोड़कर अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके पश्चात् 1913 में डॉ. अंबेडकर ने अमेरिका के कोलंबिया यूनिवर्सिटी (Columbia University) से आगे की शिक्षा प्राप्त की।
साल 1916 में उन्होंने एक बड़ी उपलब्धि हासिल की जब उन्हें शोध (research) के लिए सम्मानित किया गया। बाबा साहेब के गुरु कृष्ण केशव आम्बेडकर Krishna Keshav Ambedkar जी ने जिन्होंने बचपन में ही बाबा साहेब की प्रतिभा को पहचान लिया था। इसके अलावा, सयाजीराव गायकवाड़ जी ने उनकी पढ़ाई में बहुत सहायता की।
लंदन में पढ़ाई पूरी होने पर अपनी स्कॉलरशिप खत्म होने के बाद वह 1917 में स्वदेश यानि भारत वापस आ गए और यहाँ मुंबई के सिडनेम कॉलेज (Sydenham College) में प्रोफेसर के तौर पर नौकरी करने लगे। 1923 में उन्होंने एक शोध (रिसर्च) पूरा किया था, जिसके लिए डॉ अंबेडकर को लंदन यूनिवर्सिटी द्वारा डॉक्टर ऑफ साइंस (Doctor of Science) की उपाधि दी गयी थी। इसके बाद, साल 1927 में अंबेडकर जी ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से अपनी पीएचडी भी पूरी की। अपनी शिक्षा से उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। और एक समय ऐसा आया जब उन्होंने भारत का संविधान लिख दिया।
अंबेडकर जी और उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल मुंबई के एक ऐसे मकान में रहा करते थे जहां एक ही कमरे में पहले से ही बेहद गरीब लोग रहा करते थे इसलिए उस कमरे में उनके पिता और अंबेडकर जी दोनों लोग बारी-बारी से सोया करते थे। जब उनके पिता सोते थे तब अंबेडकर उस कमरे में नहीं सो सकते थे और जब अंबेडकर सोते थे तब उनके पिता वहां नहीं सो सकते थे। यहां तक की अंबेडकर जी दीपक की हल्की रोशनी में पढ़ते थे।
वह संस्कृत पढ़ना चाहते थे लेकिन वह समय ही कुछ ऐसा था कि छुआछूत की प्रथा के अनुसार, निम्न जाति के लोग संस्कृत का ज्ञान नहीं ले सकते थे। अंग्रेजों को संस्कृत पढ़ने की अनुमति थी लेकिन निम्न जाति के लोगों के साथ बहुत भेद भाव था। उन्हें अपनी ज़िंदगी में कई बार अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा लेकिन फिर भी उन्होंने धैर्य और वीरता के दम पर ना सिर्फ अपनी स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी की बल्कि कॉलेज में एक प्रोफेसर की तरह भी पढ़ाया।
बचपन से ही देखा भेदभाव
अंबेडकर को बचपन से ही अपनी जाति के कारण भेदभाव से गुजरना पड़ा था और इसका उनके कोमल मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। बात 1901 की है जब अंबेडकर सतारा से कोरेगाँव अपने पिता से मिलने जा रहे थे तब बैलगाड़ी वाले ने उन्हें अपनी बैलगाड़ी पर बैठाने से इंकार कर दिया। दोगने पैसे देने पर उसने कहा कि अंबेडकर और उनके भाई बैलगाड़ी चलाएंगे और वह बैलगाड़ी वाला उनके साथ पैदल चलेगा।
कभी उन्हें जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया तो कभी किसी खास अवसर पर मेहमान की तरह जाने के बावजूद भी नौकर ने उन्हें यह कहकर खाना नहीं परोसा कि वह महार जाति से हैं।
डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय संविधान के प्रारूपण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए अथक प्रयास किया कि संविधान सभी भारतीय नागरिकों के अधिकारों और हितों की रक्षा करे उनकी जाति, धर्म या लिंग की परवाह किए बिना।
डॉ अंबेडकर द्वारा भारतीय संविधान में किए गए कुछ सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में मौलिक अधिकारों का समावेश, अस्पृश्यता का उन्मूलन, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान और एक स्वतंत्र न्यायपालिका का निर्माण शामिल है। सामाजिक न्याय के लिए उनके अथक प्रयासों और समर्पण ने उन्हें भारत के इतिहास में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बना दिया है।
डॉ अम्बेडकर, जो स्वयं दलित समुदाय से थे, ने यह सुनिश्चित करने के लिए अथक प्रयास किया कि भारतीय संविधान में भारत में दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान शामिल हैं। इन प्रावधानों में से एक सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान दलितों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण को शामिल करना था, जिसे अनुसूचित जाति भी कहा जाता है।
इन आरक्षणों का उद्देश्य सदियों से भारत में दलितों के साथ होने वाले ऐतिहासिक भेदभाव को दूर करना था। उन्हें शिक्षा और सरकारी रोजगार तक पहुंच प्रदान करके, संविधान ने दलित समुदाय के उत्थान की मांग की और यह सुनिश्चित किया कि उनके पास जीवन में सफल होने का उचित मौका हो।\
डॉ अम्बेडकर ने संविधान में जो एक और महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल किया वह अस्पृश्यता का उन्मूलन था। यह प्रथा, जो सदियों से भारत में प्रचलित थी, में सामाजिक अलगाव और मुख्यधारा के समाज से दलितों का बहिष्कार शामिल था। इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित करके, संविधान ने यह सुनिश्चित करने की मांग की कि सभी भारतीय नागरिकों, उनकी जाति या धर्म की परवाह किए बिना, गरिमा और सम्मान के साथ व्यवहार किया जाए।
इन प्रावधानों के अलावा, डॉ. अम्बेडकर ने यह भी सुनिश्चित किया कि संविधान में भारत में दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई अन्य उपाय शामिल हैं। उदाहरण के लिए, संविधान ने जाति, धर्म, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित किया। इसने दलित अधिकारों के संरक्षण से संबंधित मामलों के निर्णय के लिए विशेष अदालतों की स्थापना का भी प्रावधान किया।
अपने पूरे जीवन में, डॉ. अम्बेडकर को अपनी जातिगत पहचान के कारण भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। अपनी शैक्षणिक उपलब्धियों के बावजूद, उन्होंने नौकरी के बाजार में भेदभाव के कारण रोजगार खोजने के लिए संघर्ष किया। उन्होंने जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ अथक संघर्ष किया और दलित समुदाय के लिए समान अधिकारों और अवसरों की मांग के लिए विभिन्न आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व किया।
उनके सबसे महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक 1927 में महाड सत्याग्रह था, जहां उन्होंने दलितों के लिए सार्वजनिक पानी की टंकियों तक पहुंच हासिल करने के लिए एक अभियान का नेतृत्व किया, जिन्हें उच्च जातियों द्वारा उनके उपयोग से प्रतिबंधित कर दिया गया था। 1930 में, उन्होंने मंदिर प्रवेश आंदोलन का आयोजन किया, जिसमें मांग की गई कि दलितों को हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति दी जाए, जो पहले उच्च जातियों के लिए आरक्षित थे। इन आंदोलनों ने दलित समुदाय की दुर्दशा की ओर ध्यान आकर्षित किया और जाति-आधारित भेदभाव के बारे में व्यापक राष्ट्रीय बातचीत शुरू करने में मदद की।
महाड़ सत्याग्रह 1927 में डॉ. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में एक ऐतिहासिक सामाजिक विरोध था। आंदोलन का उद्देश्य अस्पृश्यता की प्रथा को चुनौती देना और कोलाबा जिले के एक कस्बे महाड में दलितों के सार्वजनिक जल संसाधनों तक पहुंच के अधिकार पर जोर देना था। महाराष्ट्र, भारत की।
उस समय, दलितों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव व्यापक था और विभिन्न रूपों में संस्थागत था, जिसमें सार्वजनिक पानी की टंकियों तक पहुंच से इनकार करना शामिल था, जो उच्च जातियों के उपयोग के लिए आरक्षित थे। महाड सत्याग्रह ने दलितों को सार्वजनिक जल संसाधनों तक पहुंच प्रदान करने की मांग करके इस भेदभावपूर्ण प्रथा को चुनौती देने की कोशिश की।
डॉ. अम्बेडकर ने लगभग 3,000 दलित कार्यकर्ताओं के एक समूह को महाड़ ले गए, जहाँ उन्होंने चावदार टैंक से पानी पीने की योजना बनाई, जो एक सार्वजनिक जल स्रोत है, जो दलितों के लिए सख्त वर्जित था। अधिक से अधिक लोगों के शामिल होने से आंदोलन को गति मिली और अधिकारियों को नोटिस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
पूना पैक्ट, 1932 में डॉ अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच हस्ताक्षरित, एक ऐतिहासिक समझौता था जिसने दलित समुदाय के लिए अधिक अधिकारों को सुरक्षित करने में मदद की। दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल के प्रावधान को लेकर दोनों नेताओं के बीच असहमति के बाद यह समझौता हुआ। गांधी अलग निर्वाचक मंडल के विचार के विरोधी थे, क्योंकि उनका मानना था कि यह केवल देश को जाति के आधार पर विभाजित करने का काम करेगा। अंत में, डॉ अम्बेडकर प्रांतीय और राष्ट्रीय विधानसभाओं में आरक्षित सीटों के बदले में पृथक निर्वाचक मंडल की मांग छोड़ने पर सहमत हुए।
पूना समझौता भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण था, क्योंकि यह दलित अधिकारों के संघर्ष में एक प्रमुख मोड़ था। इस समझौते ने दो नेताओं के बीच एक समझौते का प्रतिनिधित्व किया, जिनके विचार भारत में जाति-आधारित भेदभाव के मुद्दे को हल करने के तरीके पर बहुत अलग थे।
डॉ अंबेडकर दलित समुदाय के लिए अलग निर्वाचक मंडल के प्रावधान के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि इससे उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया में एक आवाज़ मिलेगी और उनके द्वारा सामना किए गए ऐतिहासिक भेदभाव को दूर करने में मदद मिलेगी। हालाँकि, गांधी इस दृष्टिकोण से असहमत थे, यह तर्क देते हुए कि यह केवल भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को आगे बढ़ाने का काम करेगा।
डॉ. भीमराव अंबेडकर भारत के एक प्रमुख समाज सुधारक और राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम और जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके जीवन और विरासत के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक उनका बौद्ध धर्म से जुड़ाव था।
1956 में, डॉ. अम्बेडकर ने अपने सैकड़ों हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने के अपने निर्णय की घोषणा की। यह निर्णय कई कारकों से प्रेरित था, जिसमें हिंदू जाति व्यवस्था से उनका मोहभंग और उनका विश्वास था कि बौद्ध धर्म अधिक समतावादी और सामाजिक रूप से न्यायसंगत विकल्प प्रदान करता है।
बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाओं में से एक जाति व्यवस्था की अस्वीकृति है और यह विचार है कि सभी व्यक्ति समान हैं चाहे उनकी पृष्ठभूमि या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो। डॉ. अम्बेडकर ने इसे एक शक्तिशाली संदेश के रूप में देखा जो दलित समुदाय के संघर्षों के साथ प्रतिध्वनित हुआ और भारतीय समाज की गहरी असमानताओं और अन्याय को चुनौती देने का एक तरीका पेश किया।
डॉक्टर अम्बेडकर लगभग 9 भाषाओं का ज्ञान रखते थे।
बाबासाहेब के पास 32 डिग्रियां थीं।
कश्मीर में लगी धारा 370 के वह शख्त खिलाफ थे।
वह अपने जीवनकाल में दो बार लोकसभा चुनाव लड़े और दोनों ही बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी विदेश से की थी।
मात्र 21 वर्ष की आयु में उन्होंने सभी धर्मों की पढ़ाई कर ली थी।
बाबासाहेब अंबेडकर आज़ाद भारत के पहले कानून मंत्री थे।
बाबासाहेब ने शिक्षा को सबसे जरूरी बताया, शिक्षा के जरिये अपने आप को ऊपर उठाने और उन्होंने शिक्षा के जरिये ही आधुनिक भारत के महान नेता बनने की सीख दी। उन्होंने बताया कि जातिवाद और भेदभाव से ग्रस्त समाज में आवाज उठाने के लिए शिक्षित होना कितना महत्वपूर्ण है। न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक के रूप में उनका जीवन हम सभी के लिए एक उदाहरण है।
डॉ भीमराव अंबेडकर जी अपने जीवन के हर पड़ाव पर डट कर खड़े रहे और सभी परेशानियों का सामना किया। उन्होंने युवाओं के लिए कई उदहारण पेश किये, आइए जानते है कुछ उनसे मिली कुछ अहम सीख…
डॉ भीमराव अंबेडकर एक मेधावी छात्र रहे और शिक्षित होने के अपने दृढ़ संकल्प के रास्ते में उन्होंने कुछ भी नहीं आने दिया। जिस समाज में दलितों या 'अछूतों' को शिक्षा से वंचित कर दिया गया था, वहां डॉ अंबेडकर कॉलेज खत्म करने वाले पहले दलित बने।
उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और अमेरिका में कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन किया, और अर्थशास्त्र से पीएचडी की पढ़ाई भी खत्म की। उन्होंने बड़ौदा राज्य में रक्षा सचिव के रूप में कार्य किया। डॉ अंबेडकर भारत के पहले कानून मंत्री first law minister of India और संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष थे।
बाबा साहेब के दौर में जाति व्यवस्था इस समय से कहीं अधिक जटिल थी। उस समय चारों तरफ केवल जात-पात और भेदभाव देखने को मिलता था। युवा अम्बेडकर को ऊंची जाती के लोगों के साथ एक ही कक्षा में बैठने की अनुमति नहीं थी, और न ही उस कुएं से पानी पीने की अनुमति थी जहाँ बाकी बच्चे या लोग पानी पीते थे।
उन्होंने इस भेदभाव को शिक्षा प्राप्त करने और इस देश के इतिहास में एक अग्रणी व्यक्ति बनने के अपने दृढ़ संकल्प के रास्ते में नहीं आने दिया और किसी से भी नहीं डरे क्योंकि उन्हें पता था कि वह कुछ गलत नहीं कर रहे। 1990 में, उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।
अम्बेडकर ने समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता जैसे मुद्दों का नेतृत्व करने के लिए अपनी शिक्षा का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि समाज तभी आगे बढ़ेगा जब महिलाएं सशक्त होंगी और उनके पास रोजगार होगा और इसीलिए महिलाओं के उच्च शिक्षा के अधिकार को बरकरार रखा जाएगा।
उन्होंने सभी लोगों के मौलिक और मानवाधिकारों fundamental and human rights पर प्रकाश डालते हुए कई किताबें और कॉलम लिखे। दलितों पर सदियों से चली आ रही असमानता की जंजीरों को तोड़ने के लिए, उन्होंने दलितों के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण के लिए प्रचार किया और जीत भी हासिल की। डॉ अम्बेडकर, जो स्वयं अधिकारों से वंचित रहे लेकिन उन्होंने संविधान में मौलिक अधिकारों को अंकित किया, जिससे आने वाली पीढ़ियों को लाभ हो।
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बाबा साहेब ने कई ऐसी किताबें लिखी जिन्हे आपको जरूर पढ़ना चाहिए। आपको बता दें कि बाबासाहेब के निजी पुस्तकालय “राजगृह” Babasaheb's personal library Rajgrih में 50,000 से भी अधिक उनकी किताबें थी और यह विश्व का सबसे बडा निजी पुस्तकालय था।
डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर को 64 विषयों का अच्छा ज्ञान था। डॉ अम्बेडकर हिन्दी, पाली, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, मराठी, पर्शियन और गुजराती जैसे 9 भाषाओँ के अच्छे जानकार थे। इसके साथ ही, उन्होंने लगभग 21 साल तक विश्व के सभी धर्मों की तुलनात्मक रूप से पढाई की थी। आपको बता दें कि डॉक्टर अम्बेडकर की किताबें वर्तमान में भारत में अबसे अधिक बिकने वाली किताबों में गिनी जातीं हैं।
नीचे उनकी लिखी हुई कुछ प्रसिद्द किताबों के नाम दिए गए हैं।
किताबें
जॉन गुंथेर John Gunther ने अपनी मशहूर क़िताब 'इनसाइड एशिया' 'Inside Asia' में लिखा है कि 1938 में जब राजगृह में वे भीमराव अंबेडकर से मिले थे तब अंबेडकर जी के पास 8000 किताबें थीं और उनकी मौत के दिन तक ये संख्या 8000 से बढ़कर 35,000 हो चुकी थी।
नामदेव निमगड़े Namdev Nimgade ने एक बार अंबेडकर जी से ये प्रश्न किया कि आप इतने लंबे समय तक पढ़ने के बाद खुद को रिलैक्स कैसे करते हैं तो इस पर अंबेडकर जी का जवाब होता है कि मैं खुद को रिलैक्स करने के लिए किसी दूसरे विषय की किताबों को पढ़ने लगता हूं।
वह किताबों में इतने लीन हो जाते थे कि उन्हें बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है इसका भी पता नहीं चलता था। निमगड़े बताते हैं कि एक बार मैं रात में उनके स्टडी रूम में गया और उनके पैर छुए। इस पर किताबों में डूबे हुए अंबेडकर जी कहते हैं कि टॉमी ये मत करो। निमगड़े समझ नहीं पाते हैं कि अंबेडकर जी ने उन्हें टॉमी नाम से क्यों पुकारा।
दरअसल, वह पढ़ने में इतने मग्न हो गए थे कि निमगड़े के स्पर्श को वो अपने कुत्ते टॉमी का स्पर्श समझ लेते हैं और जब वह सामने निमगड़े को खड़ा पाते हैं तो वे झेंप जाते हैं।
यदि हम बाब साहेब भीमराव अंबेडकरऔर उनके द्वारा लिखी गयी किताबों को ध्यान से पढ़ें और समझें तो हम जानेंगे की उनका व्यक्तित्व कितना प्रेरणादायी है। आज के परिवेश में बाबा साहेब जैसे व्यक्तित्व की बहुत आवश्यकता है, जो ऊंच-नीच और भेद-भाव के विद्रोह को खत्म कर देश को विकास के पथ पर अग्रसर कर सके।
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