किसी भी मंडली में वाद-प्रतिवाद का होना मनुष्य के ज्ञान के दायरे को बढ़ाता है, बशर्ते वह साथ में इस तथ्य को भी लेकर चले कि सामने वाले व्यक्ति के द्वारा साझा किए जा रहे ज्ञान के सही होने की गुंजाइश रह सकती है। जब भी किसी विषय पर हम चर्चा शुरू करें तो, सर्वप्रथम उस विषय की संपूर्ण जानकारी हमारे पास होना चाहिए। अपने प्रकाश पर विश्वास होने के साथ हमें इस बात का भी धैर्य रखना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं सामने वाला अखिल अंधकार में ही हो।
ज्ञान किसी निश्चित सीमा के भीतर बाध्य नहीं है। यह वह अथाह समन्दर है, जहां इसकी गहराई और लंबाई को नापना असंभव है। ज्ञान को एक सोच तक बांधा नहीं जा सकता है। हम यदि उम्र भर भी ज्ञान को अर्जित करते रहें तो भी हम संपूर्णत: उसे प्राप्त नहीं कर सकते हैं। मनुष्य की आयु ज्ञान के फूल के सामने एक छोटे से भंवरे की भांति है, जो जीवन भर उसका रसपान करता रहता है, परन्तु फिर भी वह फूल के एक हिस्से का भी संपूर्ण रसपान नहीं कर पाता है। हम अपने रूचि के आधार पर ज्ञान का अर्जन करते हैं। जिस क्षेत्र में हम स्वयं को निपूर्ण करना चाहते हैं, हम उसी क्षेत्र का ज्ञान अर्जित करते हैं तथा स्वयं को तृप्त रखते हैं, हालांकि इसके बाद भी इस बात का संशय रह जाता है कि हमने उस क्षेत्र का भी पूर्ण ज्ञान हुआ या नहीं। हम मनुष्य अपने द्वारा अर्जित किए गए जानकारी को आधारशिला बनाकर वाद-प्रतिवाद के मैदान में जुगलबंदी के लिए उतरते हैं तथा स्वयं के ज्ञान को सत्य साबित करने का प्रयास करते हैं। परन्तु कब यह वाद-प्रतिवाद एक आरोपों तथा प्रत्यारोपों का दंगल बन जाता है, हम यह समझ नहीं पाते हैं।
किसी भी मंडली में वाद-प्रतिवाद का होना मनुष्य के ज्ञान के दायरे को बढ़ाता है, बशर्ते वह साथ में इस तथ्य को भी लेकर चले कि सामने वाले व्यक्ति के द्वारा साझा किए जा रहे ज्ञान के सही होने की गुंजाइश रह सकती है। जब भी किसी विषय पर हम चर्चा शुरू करें तो, सर्वप्रथम उस विषय की संपूर्ण जानकारी हमारे पास होना चाहिए। अपने प्रकाश पर विश्वास होने के साथ हमें इस बात का भी धैर्य रखना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं सामने वाला अखिल अंधकार में ही हो।
किसी वाद-प्रतिवाद में हम अपने विचार का पक्ष रखते हैं, हम सामने वाले को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि, हम इस विचारधारा के प्रवाहक क्यों हैं। यह पूर्ण रूप से विचारात्मक भावनाओं के लिए दो पक्षों का खेल होता है, जिसमें दिया गया तर्क किसी भी परिवेश में व्यक्तिगत नहीं होना चाहिए। हमें तर्क के सिद्धांतों की सीमा को बरकरार रखना चाहिए।
हमारी हमेशा यह इच्छा होती है कि सामने वाला मनुष्य हमारी बात को ध्यान से सुने, हमारे द्वारा दिए गए तर्कों पर विचार-विमर्श करें। इसके लिए यह ज़रूरी है कि हम उसे भी उसकी बात कहने का अवसर दें, इसी स्थिति में वह हमारे तथ्य को सहजता और धैर्य से सुनेगा। यही वाद-प्रतिवाद की मांग होती है।
हमें तर्क करते वक्त इस बात का स्मरण नहीं रह जाता है और हम इस वातावरण को वाद-प्रतिवाद के बजाय आरोप-प्रत्यारोप के आवरण से ढक देते हैं। हम इस बहस को व्यक्तिगत रूप से लेने लगते हैं। हम सामने वाले व्यक्ति पर विषय से हटकर टिप्पणी करने लगते हैं, जो कभी-कभी व्यक्तिगत भी हो जाता है। हम यह भूल जाते हैं कि सामने वाला व्यक्ति भी उतने ही सम्मान का हक़दार है, जितना कि हम। हम बहस करने के बजाय लड़ाई करने लगते हैं।