भारत की इन महिला स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की आज़ादी के लिए, कई परेशानियों से लड़ते हुए और हर चुनौती पर विजय पाते हुए देश एवं समाज के लिए जो लडाई लड़ी वह अविस्मरणीय है, एक स्वच्छ,और स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण में उनके योगदानों को देश कभी भुला नहीं पायेगा। आज 8 मार्च अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर हम उन प्रेरणादायक एवं प्रतिभा की धनी महिलाओं के बलिदानों को याद कर पाएं यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
हर साल अंतराष्ट्रीय महिला दिवस international women's day, 8 मार्च को मनाया जाता है। महिलाओं को सम्मान और प्यार देने को लेकर, समाज के लोगों को जागरूक करने और महिलाओं को उनके अधिकारों के लिये जागरूक करने जैसी चीजों को ध्यान मे रख कर ही अंतराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। महिलाओं के हौसलों को बुलंद करने और समाज मे फैली असमानता को दूर करने के लिए इस दिन का काफी महत्व है। जैसे कि हम सब जानते हैं कि महिलाएं किसी भी कार्य और क्षेत्र में पीछे नहीं है। इसी प्रकार से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी भारतीय महिलाओं का अभूतपूर्व सहयोग रहा। भारत को आज़ाद कराने के संघर्ष में कई साहसी महिलाओं ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाजें उठाई। इन महिलाओं में एक ग़ज़ब का साहस और प्रखर राष्ट्रवादी भावना थी।
आजादी के लिए अपनी जान की बाजी देने और देश के लिए मर मिटने वाले वीरों में देश की कुछ महान विरांगनाएं भी थीं। आजादी के लिए कुर्बानी देने में पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी पीछे नहीं रही, उन सभी महिलाओं के लिए सिर्फ और सिर्फ देश सर्वोपरि था। उन अद्भुत, अद्वितीय महिलाओं के लिए लोगों के लिए दिलों में सम्मान और कृतज्ञता का भाव आजीवन रहेगा। आज इस अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर वक्त है उनके योगदानों को और उनके द्वारा देश के लिए किये गए कार्यों और संघर्षों को फिर से एक बार जीवित करने का। क्योंकि महिला स्वतंत्रता सेनानियों women freedom fighters का उल्लेख किये बिना अंतराष्ट्रीय महिला दिवस की चर्चा अधूरी है, तो चलिए आज इस महिला दिवस पर हम उन्हें याद करते हैं और नमन करते हैं, जिन्होंने अपना हर पल, हर क्षण इस भारत देश के लिए न्यौछावर किया। शायद यही हमारा उनके प्रति एक सच्चा सम्मान होगा।
सुचेता कृपलानी आजाद भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं । सुचेता कृपलानी का जन्म 25 जून, 1908 में हरियाणा के अंबाला में एक बंगाली परिवार में हुआ था। साल 1936 में सुचेता की शादी हुई और इसके बाद सुचेता स्वतंत्रता की लड़ाई की ओर पूरी तरह से सक्रिय हो गईं। भारत छोड़ो आंदोलन Quit India Movement के दौरान देश की आजादी के लिए वह आवाज उठाती रहीं। सुचेता एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी थी और उन्होंने विभाजन के दंगों के दौरान महात्मा गांधी के साथ रह कर कार्य किया था। इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उन्हें भारतीय संविधान के निर्माण के लिए गठित संविधान सभा की ड्राफ्टिंगसमिति के एक सदस्य के रूप में निर्वाचित किया गया था। उन्होंने भारत के संविधान में महिला अधिकारों के लिए आवाज उठाई थी। उन्होंने भारतीय संविधान सभा में ‘वंदे मातरम’ 'Vande Matram' भी गाया था। देश की आजादी के बाद सुचेता कृपलानी ने सक्रिय राजनीति में एंट्री की और साल 1952 में सुचेता कृपलानी लोकसभा की सदस्य निर्वाचित हुईं। आजादी के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य की मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया।
विजय लक्ष्मी पंडित का जन्म 18 अगस्त 1900 को गांधी-नेहरू परिवार में हुआ था। विजय लक्ष्मी पंडित, देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की बहन थी। उन्होंने भी आज़ादी की लडाई में हिस्सा लिया और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में विजय लक्ष्मी पंडित ने अपना अमूल्य योगदान दिया। आंदोलनों मे भाग लेने के कारण उन्हें जेल मे भी बंद किया गया। वह हर आन्दोलन में आगे रहतीं और जेल भी जातीं। ब्रिटिश राज के दौरान किसी कैबिनेट पद पर रहने वाली प्रथम महिला विजयलक्ष्मी पंडित ही थीं। विजय लक्ष्मी पंडित भारत की संविधान सभा की सदस्य member of the constituent assembly भी थी। भारत के राजनीतिक इतिहास में वह पहली मंत्री भी थी। वह संयुक्त राष्ट्र की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष और स्वंत्रत भारत की पहली महिला राजदूत First woman ambassador of independent India थी, जिन्होंने मॉस्को, लंदन और वॉशिंगटन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित ने अपने पति के साथ आजादी के आन्दोलन में भाग लिया और वो हमेशा राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय रही। गांधीजी से प्रभावित होकर उन्होंने भी आज़ादी के लिए आंदोलनों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। फिर उन्होंने गाँधीजी के 'असहयोग आन्दोलन' non cooperation movement में भी भाग लिया। इसके अलावा विजयलक्ष्मी पण्डित देश-विदेश के अनेक महिला संगठनों से भी जुड़ी हुई थीं।
वीरांगना दुर्गा भाभी का जन्म कौशांबी के सिराथू तहसील के शहजादपुर गांव में सात अक्टूबर 1907 को हुआ था। पति भगवती चरण वोहरा के क्रांतिकारी भाव ने दुर्गा भाभी को भी देशप्रेम की भावना patriotism से भर दिया था इसलिए वह भी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी Hindustan Socialist Republican Army (HSRA) की सदस्य बन गईं। उनके पति क्रांतिकारी थे इस वजह से वोहरा की पत्नी होने के नाते HSRA के अन्य सदस्य उन्हें भाभी कहते थे। बस फिर दुर्गावती वोहरा Durgavati Vohra बन गईं दुर्गा भाभी और इसी नाम से मशहूर हो गईं। ‘दुर्गा भाभी’ नाम से मशहूर दुर्गा देवी बोहरा ने भगत सिंह को लाहौर जिले से छुड़ाने का प्रयास किया था। सन् 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता भी दुर्गा भाभी ने की। बम्बई के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज अफसर घायल हो गया, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलायी थी। फिर 12 सितम्बर 1931 को दुर्गा भाभी को लाहौर से गिरफ्तार कर लिया गया। मर्दों का वेष धारण कर उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया और बाल गंगाधर तिलक के गरम दल में शामिल होने पर गिरफ्तार हुई और इन्हे जेल भेज दिया गया। जेल में रहकर उन्होंने चक्की भी पीसी । दुर्गाभाभी को पिस्तौल चलाने में महारथ हासिल थी और वह बम बनाना भी जानती थीं। दुर्गा भाभी का काम साथी क्रांतिकारियों के लिए राजस्थान से पिस्तौल, बम और बारूद लाना और ले जाना था। ऐसी थी वीरांगना दुर्गा भाभी, उस महान क्रांतिकारी और स्त्री शौर्य की प्रतीक दुर्गा भाभी को हमारा नमन।
लखनऊ में कमला चौधरी का जन्म 22 फरवरी 1908 को हुआ था। बचपन से ही वह राष्ट्रवादी विचारों वाली थीं। साल 1930 में महात्मा गांधी Mahatma Gandhi जी द्वारा शुरू की गई सविनय अवज्ञा आंदोलन Civil disobedience movement में उन्होंने सक्रियता से हिस्सा लिया था। सविनय अवज्ञा आंदोलन से देश की आजादी मिलने तक कमला चौधरी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और कारावास तक का सफर भी तय किया। वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उपाध्यक्ष और लोकसभा के सदस्य के रूप में चुनी गई थीं। कमला चौधरी 1947 से 1952 तक संविधान सभा की सदस्य रहीं। बहमुखी प्रतिभा की धनी कमला चौधरी अपने समय की लोकप्रिय कथा लेखिका थीं। उनकी कहानियां आमतौर पर महिलाओं की आंतरिक दुनिया से संबंधित होती थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही उनकी कई कहानियां प्रकाशित हुईं। एक समाज सुधारक के रूप में, एक लेखिका के रूप में, राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में, संविधान को बनाने में और महिलाओं के उत्थान के लिए वह विशेष रूप से सक्रिय रहीं। आज हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उस महिला के संघर्षों, देश और समाज के लिए किये गए योगदानों को याद करें। यही हमारा उनके प्रति एक सच्चा सम्मान होगा।
डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्तूबर 1914 को एक तमिल परिवार में हुआ था। लक्ष्मी सहगल ने पेशे से डॉक्टर रहते हुए भी सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर प्रमुख भूमिका निभाई थी। लक्ष्मी सहगल ने साल 2002 के राष्ट्रपति चुनावों में भी हिस्सेदारी निभाई थी। वो राष्ट्रपति चुनाव में वाम-मोर्चे की उम्मीदवार थीं लेकिन एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें हरा दिया था। उनका पूरा नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने नेताजी से अपने को भी शामिल करने की इच्छा व्यक्त की थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अनुयायी के तौर पर वे इंडियन नेशनल आर्मी Indian National Army में शामिल हुईं थीं। 1943 में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झाँसी रेजिमेंट में कैप्टेन पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत ही उन्हें कर्नल का पद मिला था। उन्हें वर्ष 1998 में पद्म विभूषण Padma Vibhushan से नवाजा गया था। स्वतंत्रता सेनानी, डॉक्टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उनके किये कार्यों को और उन्हें सदैव याद रखेगा। दितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिंद फ़ौज Azad Hind Fauj के सैनिकों की भी पकड़ना शुरू किया। सिंगापुर में पकड़े गये आज़ाद हिन्द सैनिकों में लक्ष्मी सहगल भी थी। इसके बाद वह सक्रिय राजनीति में भी आयीं और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में कैप्टन रहीं डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का 23 जुलाई, 2012 की सुबह कानपुर के एक अस्पताल में निधन हो गया।
दुर्गाबाई का जन्म 15 जुलाई 1909 को राजमुंदरी में हुआ था। दुर्गाबाई देशमुख एक निडर देशभक्ति महिला के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता, वकील तथा कुशल राजनीतिज्ञ भी थी। वह आयरन लेडी के नाम से मशहूर थी। बारह वर्ष की उम्र में गैर-सहभागिता आंदोलन (Non Cooperation movement) में भाग लेने वाली दुर्गाबाई देशमुख बाल्य काल से ही समाज सेवा में आगे थीं। दुर्गाबाई केंद्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड, राष्ट्रीय शिक्षा परिषद और राष्ट्रीय समिति पर लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा जैसे कई केंद्रीय संगठनों की अध्यक्ष थीं। आंध्र केसरी टी प्रकाशन के साथ उन्होंने मई 1930 में मद्रास शहर में नमक सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया। 1936 में आंध्र महिला सभा की स्थापना की, जो एक दशक के अंदर मद्रास शहर में शिक्षा और सामाजिक कल्याण का एक महान संस्थान बन गया। वह संसद और योजना आयोग की सदस्य भी थीं। 1971 में भारत में साक्षरता के प्रचार में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें चौथे नेहरू साहित्यिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1975 में, उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
कमला नेहरू का 1 जन्म अगस्त, 1899, को दिल्ली में हुआ था। कमला नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पत्नी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मां थीं। जब वह सिर्फ सत्रह साल की थीं तब उनका विवाह जवाहरलाल नेहरू Jawaharlal Nehru से हो गया था। जवाहर लाल नेहरू से विवाह के बाद कमला नेहरु को स्वाधीनता संग्राम को जानने और बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला। कमला नेहरू बहुत शांत स्वाभाव की थी लेकिन समय आने पर यही शांत स्वाभाव की महिला लौह स्त्री साबित हुई। क्योंकि उनके पति जवाहरलाल और ससुर मोतीलाल नेहरू दोनों ही आन्दोलन में पूरी तरह सक्रिय थे। कमला नेहरू धरने-जुलूस में कभी अंग्रेजों का सामना करती तो कभी भूख हड़ताल करतीं तो कभी जेल की चारदिवारी में ही सोती। उन्होंने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उनके अन्दर एक गज़ब का आत्मविश्वास और नेतृत्व की क्षमता थी। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजी सरकार ने उन्हें दो बार गिरफ्तार भी किया। जिस वक्त गाँधी जी के 1930 के नमक सत्याग्रह Salt Satyagraha के दौरान दांडी यात्रा की उस समय कमला नेहरु ने भी इस सत्याग्रह में भाग लिया था। सन् 1930 में जब कांग्रेस के सभी शीर्ष नेता जेलों में बंद थे तब उन्होंने राजनीति में भी पूरी शिरकत की। जब तक वो जीवित रहीं अपने पति जवाहरलाल नेहरू का कंधे से कंधा मिलाकर पूरा साथ दिया। 28 फ़रवरी 1936 को स्विटज़रलैंड के लोज़ान शहर में कमला नेहरू का निधन हुआ और उन्होंने अपनी अंतिम साँसें लीं।
कनकलता बरुआ का जन्म 22 दिसंबर सन 1924 को हुआ था। कनकलता बरुआ असम की रहने वाली थी। जब वो सिर्फ सात साल की थी तब उसके पास के गांव गमेरी में क्रांतिकारी आए और सभा हुई थी। बस वहीं से उनके बाल मन में क्रांति का अंकुर फूट गया था। 8 अगस्त सन 1942 को मुंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और वहां अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। वो अंग्रेजों के लिए बड़ा खतरा बनकर सामने आईं। इसी बीच तेजपुर में तिरंगा फहराने का फैसला हुआ। 20 सितंबर सन 1942 का दिन तय हुआ जिसमें कनकलता के घर से 82 मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराना था। भीड़ से कहा गया कि अब एक इंच भी आगे मत बढ़ना लेकिन उस वक्त उसको सुनने वाला कौन था। सबसे आगे कनकलता चली और सिपाही ने गोली चला दी। कनकलता के सीने में गोली लग गयी। कनकलता बरुआ बहुत छोटी सी उम्र में पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने की कोशिश के दौरान पुलिस की गोलियों का शिकार बन गईं। कनकलता के पार्थिव शरीर को क्रांतिकारियों द्वारा उनके गांव ले जाया गया। इतनी छोटी सी उम्र में कनकलता बरुआ ने जो शहादत दी, उसका देश हमेशा ऋणी रहेगा।
मातंगिनी हाज़रा, उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ 'Old Gandhi' के नाम से भी जाना जाता है। वह 62 साल की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन मे भी भाग लिया था। 1942 में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का ऐलान किया और नारा दिया था ‘करो या मरो’ do or die तब मातंगिनी हाजरा ने मान लिया था कि अब आजादी का वक्त करीब आ गया है। उन्होंने तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाल ली। तब तय किया गया कि मिदनापुर के सभी सरकारी ऑफिसों और थानों पर तिरंगा फहरा कर अंग्रेजी राज खत्म कर दिया जाए। वह 29 सितम्बर 1942 का दिन था, और इसमें ज्यादातर महिलाएं थीं। मातंगिनी सबके आगे थी और उनके दाएं हाथ में तिरंगा था। अंग्रेजों ने उस दौरान 72 साल की उम्र में उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया लेकिन उन्होंने मरते दम तक तिरंगे (tricolor) को नहीं गिरने दिया और मुंह से वंदे मातरम निकलता रहा। वह तीन बार गोली लगने के बावज़ूद वह भारतीय झंडा लिए मौज़ूद रही और नीचे गिरी पर तिरंगे को अपने सीने पर लगाये रखा और फिर जोर से बोला वंदे मातरम, भारत माता की जय। कोलकाता में हाज़रा रोड भी उनके नाम पर रखी गयी है। उनके साहस और त्याग की दास्ताँ सुन सचमुच हैरानी होती है। अपने देश की शान के लिए अपना बलिदान देने वाली इस बूढ़ी गांधी का नाम हमेशा अमर रहेगा।
अरुणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को कालका (हरियाणा) के एक रूढ़िवादी हिंदू बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पति आसफ अली स्वतंत्रता संग्राम Freedom Struggle से पूरी तरह से जुड़े हुए थे, इसलिए अरुणा आसफ अली भी उनके साथ जुड़ गयीं । 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान उन्होंने सार्वजनिक सभाओं को सम्बोधित किया और जुलूस निकाला। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें एक साल जेल की सजा सुनाई लेकिन एक जन आंदोलन के कारण ब्रिटिश सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा। अरुणा आसफ अली ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था। उन्होंने मुंबई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराकर अंग्रेजों को भारत छोड़ने की चुनौती दे डाली थी। फिर वह बीमार हो गईं और गांधी जी ने उन्हें आत्मसमर्पण करने की सलाह दी। 26 जनवरी 1946 में जब उन्हें गिरफ्तार करने का वारंट रद्द किया गया तब अरुणा आसफ अली ने स्वयं आत्मसमर्पण किया। वह दिल्ली की प्रथम मेयर चुनी गईं। 1975 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार Lenin Peace Prize और 1991 में अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान के लिए जवाहर लाल नेहरू पुरुस्कार से भी सम्मानित किया गया। 1998 में उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ Bharat Ratna और भारतीय डाक सेवा द्वारा जारी किए गए एक डाक टिकट से सम्मानित किया गया। आजादी की लड़ाई में एक नायिका के तौर पर उभरने वाली और अद्भुत कौशल से परिपूर्ण इस आंदोलनकारी अरुणा आसफ अली का 29 जुलाई 1996 को का देहांत हो गया।
अंत में अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक नारी के लिये यही कहूँगी कि -
तुम आग की ज्वाला हो, नदी की तुम धारा हो
आसमां में जो सूरज है, उसका तुम उजाला हो
तुम नारी हो, तुम नारी हो,
सुरों की सरस्वती तुम, रणभूमि की महाकाली हो
तुम हो नहीं अकेली, तुम एक ही सब पे भारी हो
तुम नारी हो, तुम नारी हो …..
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