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भारत की प्राथमिक शिक्षा में यूँ तो काफी बदलव आये हैं, मगर फिर भी हम यदि दूसरे देशों से तुलना करें तो अभी भी हमें लम्बी रेस दौड़नी हैं। उसी बीच हम तमाम बातें रोज़ ही सुनते हैं कि कहीं स्कूल नहीं खुल रहा, कहीं प्राथमिक विद्यालयों की व्यवस्था ठीक नहीं है। और जो उससे पढ़कर बड़े आदमी बन गए उन्होनें उसको कितना सुधारने का प्रयास किया। इस कविता को व्यंगात्मक स्वरुप में पढ़कर आनंद ले सकते हैं साथ ही साथ एक सीख भी।
गाँव के हरे भरे माहौल में
श्यामपट के अधकटे हिस्सों के बीच
a b c d अनगिनत बार सफर तय करती है
आ ई उ ज़ुबाँ पर ज़ायके की तरह आते हैं
उम्र बढ़ते बढ़ते ज़हन के किसी भंडार में
घर बना कर बैठ जाते हैं
किसी गहरी खाई से निकलना है
गाँव से पढ़कर दुनिया देख पाना
जहाँ कुछ बासी कमरे हैं स्कूल में
जहाँ टहला करते हैं चींटियों के समूह
वो दावा करती हैं अपने ही होने का
नैतिकता की चादरों में लिपटी हुई
वो सारी दीवारें जिनपर लादे गए स्लोगन
जोर जोर से चीखते हैं और कहते हैं
धूल चहरे से हटाओ की सांस ली जा सके
जब सियासत चरम पर हो
तब नाक चुआते बच्चे नहीं दिखते
न दिखाई देते हैं वो गुशुदा क्लासेस
जहाँ श्यामपट का वो कोना,
हिंदुस्तान के टूटे हुए सपने दिखाता हो
और किसी मर्म लहज़े से कहता हो
74 साल के बाद हमने श्यामपट को
ठीक ठीक आकार नहीं दे पाया
न उसमे आतीं दरारें भर पाईं
एक बनो नेक बनो
सुनने में कितना अच्छा लगता है
फिर वहीं गाँव की महिलाएँ कहती हैं
हमारे हिस्से में जो लेट्रिन आयी थी
वो तो प्रधान ने खा गया
अर्थात शौचालय बने नहीं
कितना हस्यात्म है न ये दृश्य
होना भी चाहिए आँखे बंद हो तो
आवाज़ें सुनाई देती हैं अच्छे पल की
पर दिखाई नहीं देता कुछ भी
ये सारी बातें तुम सबके लिए नहीं है
इससे पढ़ने से कुंठा पैदा होगी
और फिर तुम सोच में पड़ो
ये उम्र कहाँ तुम्हारी
खैर खाई पार करने वालों को
सलाम है
और अफसोस भी
की उन्होंने कुछ नहीं सोचा निकलने के बाद
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